Jagannath temple story: जगन्नाथ मंदिर बनने के बाद सदियों तक रेत में दबा रहा था, पढ़ें पूरी कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 07 Jul, 2024 06:36 AM

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ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ धाम में रथयात्रा की रीतियां शुरू हो चुकी हैं। बीती ज्येष्ठ पूर्णिमा को श्रीमंदिर में तीनों देव प्रतिमाओं को स्नान कराया गया। मान्यता है कि 108 घड़े जल से स्नान के बाद भगवान जगन्नाथ बीमार पड़ जाते हैं और

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Jagannath temple story: ओडिशा के पुरी स्थित जगन्नाथ धाम में रथयात्रा की रीतियां शुरू हो चुकी हैं। बीती ज्येष्ठ पूर्णिमा को श्रीमंदिर में तीनों देव प्रतिमाओं को स्नान कराया गया। मान्यता है कि 108 घड़े जल से स्नान के बाद भगवान जगन्नाथ बीमार पड़ जाते हैं और फिर 15 दिन के लिए दर्शन नहीं देते। इसे ‘अनासरा विधान’ कहते हैं।

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हालांकि, बीमार पड़ने की मान्यता एक किंवदंती से आती है। वास्तव में इस दौरान प्रतिमाओं को संरक्षित किए जाने के विधान भी होते हैं, इसलिए पुरी का श्रीमंदिर 15 दिन के लिए बंद रहता है। आषाढ़ अमावस्या को मंदिर के पट खुलते हैं और फिर आषाढ़ शुक्ल पक्ष की द्वितीय तिथि को भगवान जगन्नाथ की रथ यात्रा निकलती है, जोकि समूचे विश्व में प्रसिद्ध है लेकिन, क्या आप जानते हैं कि यह मंदिर निर्माण के बाद सदियों तक रेत में दबा हुआ था। यह कथा भी कई रहस्यों से भरी है।

उत्कल क्षेत्र के राजा इंद्रद्युम्न और उनकी पत्नी रानी गुंडिचा ने बड़े ही परिश्रम से भगवान नीलमाधव के लिए मंदिर बनवाया। हनुमान जी ने इसमें उनकी सहायता की। राजा के भाई विद्यापति नीलमाधव के प्राचीन विग्रह को खोज लाए, जो कि एक भील कबीले के पास संरक्षित था।

देव शिल्पी विश्वकर्मा बूढ़े शिल्पकार के वेश में आए और उन्होंने सशर्त भगवान जगन्नाथ की प्रतिमाएं तैयार कर दीं। इन प्रतिमाओं में विग्रह समाहित किया गया और फिर इन्हें मंदिर में स्थापित कर दिया गया। अब प्रश्न था, मंदिर और देवप्रतिमाओं की प्राण-प्रतिष्ठा का। राजपरिवार मंदिर में अभी यह विचार कर ही रहा था कि तभी वहां देवर्षि नारद प्रकट हुए। राजा ने उनसे कहा कि श्रीमंदिर की प्राण प्रतिष्ठा के लिए आपसे बेहतर पुरोहित कौन होगा ? देवर्षि नारद ने कहा कि इस विग्रह की प्राण प्रतिष्ठा तो ब्रह्माजी को ही करनी चाहिए। आप मेरे साथ चलिए और उन्हें आमंत्रण दीजिए, वे जरूर आएंगे।

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राजा इसके लिए सहर्ष तैयार हो गए। नारद ने कहा कि राजन, ब्रह्मलोक चलने से पहले अपने परिवार से आखिरी बार मिल तो लीजिए। आप मनुष्य हैं, ब्रह्मलोक जाने और वहां से लौटने में धरती पर बहुत सारा समय बदल चुका होगा। कई शताब्दियां लग जाएंगी। जब आप लौटेंगे तो न आपका राजपरिवार रहेगा और न ही यह राज्य। सगे-संबंधी भी जीवित नहीं रहेंगे। पुरी नीलांचल क्षेत्र में किसी और राजा का शासन रहेगा।

रानी गुंडिचा ने कहा कि, जब तक आप लौटकर नहीं आते मैं प्राणायाम के जरिए समाधि में रहूंगी और तप करूंगी। उनके भाई विद्यापति और भाभी ललिता ने कहा कि हम रानी की सेवा करते रहेंगे।

राजा देवर्षि नारद के साथ ब्रह्म लोक पहुंचे और ब्रह्माजी से प्राण प्रतिष्ठा के लिए आग्रह किया। ब्रह्मदेव ने राजा की बात मान ली और जब उनके साथ श्रीक्षेत्र पहुंचे तब तक कई सदियां बीत चुकी थीं। राजा के सभी परिजनों की मृत्यु हो चुकी थी, बल्कि उनके सभी संबंधियों की पीढ़ियों में कोई नहीं बचा था। इस दौरान श्रीमंदिर भी समय की परतों के साथ रेत के नीचे दब गया और सदियों तक रेत में ही रहा था।

इस दौरान पुरी में एक और राजा हुआ गालु माधव। एक दिन समुद्री तूफान आया और इसके कारण सागर किनारे बने श्रीमंदिर का शिखर रेत से बाहर निकल आया। राजा गालु माधव ने खुदाई करानी शुरू की तो उन्हें रेत के नीचे दबा हुआ मंदिर मिल गया।  राजा ने उस पर खुद का अधिकार समझा और मंदिर स्थापना की तैयारी करने लगे। इसी दौरान राजा इंद्रद्युम्न ब्रह्म देव को लेकर आ गए। वे जब मंदिर के द्वार से प्रवेश करने लगे तो नए राजा के पहरेदारों ने उन्हें रोक दिया और उनको बंदी बना कर दरबार में पेश किया गया।

राजा गालु माधव को उन्होंने पहले की घटी सभी घटनाओं और ब्रह्माजी के साथ आने की बात बताई। इधर, रानी गुंडिचा को भी अपने पति के लौट आने का अहसास हुआ तो वह समाधि से उठीं। सब जान कर गालु माधव ने खुद को राजा की शरण में सौंप दिया और उनसे कृष्ण भक्ति पाने की प्रार्थना की।

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अब सारी बातें सामने आने के बाद मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा ही बाकी रह गई थी। ब्रह्मदेव ने एक यज्ञ कराकर रानी गुंडिचा और राजा इंद्रद्युम्न के हाथों जगन्नाथ भगवान की प्राण प्रतिष्ठा कराई। प्रतिष्ठा होते ही भगवान जगन्नाथ, बहन सुभद्रा और भाई बलभद्र के साथ प्रकट हो गए।

उन्होंने राजा को आशीष देकर उससे मनचाहा वर मांगने को कहा। राजा ने मांगा कि जिन सैनिकों-श्रमिकों ने मंदिर के निर्माण और इसे फिर से रेत से निकाल लेने में श्रम किया, उन सभी पर अपनी कृपा बनाए रखना।

भगवान मुस्कुराए और बोले, राजन, तुम्हारी इच्छानुसार सभी सेवकों-श्रमिकों पर मेरी कृपा रहेगी। उनकी पीढ़ियां ही मंदिर के अलग-अलग कार्यों में सेवा देंगी।

जगन्नाथ मंदिर में रथ के अलावा नई प्रतिमाओं का निर्माण भी तब से चले आ रहे कर्मकारों के वंशज ही कर रहे हैं। नबाकलेबरा विधान में भगवान की प्रतिमाएं बदल दी जाती हैं।

इसके बाद भगवान रानी गुंडिचा की ओर मुड़े और कहा, आपने तो मां की तरह मेरी प्रतीक्षा की है, आप मेरी माता के जैसी हैं मौसी गुंडिचा। मैं वर्ष में एक बार आपसे मिलने जरूर आऊंगा। जिस स्थान पर आपने तपस्या की थी, वह स्थान अब मेरी मौसी गुंडिचा का मंदिर होगा। इसे देवी पीठ के तौर पर मान्यता मिलेगी।

हम तीनों भाई-बहन आपके पास आया करेंगे और संसार इसे रथ यात्रा के तौर पर जानेगा। इसके साथ ही पुरी के हर राजा को रथयात्रा मार्ग को स्वर्ण झाड़ू से बुहारने का सौभाग्य मिलेगा। रथ यात्रा के मार्ग को बुहारने की प्रथा ‘छेरा पहरा’ कहलाती है।

इसी के बाद से जगन्नाथ पुरी भगवान का घर और धरती पर नारायण का वैकुंठ बन गया। ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान का प्राकट्य हुआ था, इसे उनके जन्म के तौर पर देखा जाता है और फिर 15 दिन के विश्राम के बाद उन्हें गर्भगृह से बाहर लाकर सभी को दर्शन कराए जाते हैं और रथयात्रा निकाली जाती है। यही परंपरा आज भी जारी है। 

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