जैन धर्म: विलुप्ति के कगार पर या पुनर्जागरण की दहलीज पर ?

Edited By Updated: 18 Jun, 2025 04:17 PM

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Jainism: भारत की कुल जनसंख्या 121 करोड़ से अधिक है परंतु इसमें जैन समुदाय की हिस्सेदारी केवल 0.37% है यानी लगभग 44.5 लाख लोग। यह आंकड़ा अपने आप में एक चेतावनी है। जैन धर्म, जो दुनिया के सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले दर्शनों में गिना जाता...

शास्त्रों की बात, जानें धर्म के साथ

Jainism: भारत की कुल जनसंख्या 121 करोड़ से अधिक है परंतु इसमें जैन समुदाय की हिस्सेदारी केवल 0.37% है यानी लगभग 44.5 लाख लोग। यह आंकड़ा अपने आप में एक चेतावनी है। जैन धर्म, जो दुनिया के सबसे प्राचीन और वैज्ञानिक दृष्टिकोण वाले दर्शनों में गिना जाता है, जिसने हजारों वर्षों पूर्व ‘अहिंसा’, ‘सत्य’, ‘अपरिग्रह’ और ‘स्व-नियंत्रण’ जैसे सिद्धांतों को न केवल बताया, बल्कि जिया भी आज वही दर्शन अपने अनुयायियों सहित धीरे-धीरे लुप्त होता जा रहा है।

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जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है, यह विलुप्ति केवल एक अनुमान नहीं रही, बल्कि एक सच्चाई बनती जा रही है। लोग कहते हैं, “नाम के आगे जैन लगाओ, पहचान बचाओ या विवाह अपने समाज में करो, ताकि परंपरा टिकी रहे लेकिन क्या इतना ही काफी है ? क्या हम इस समस्या की जड़ों तक पहुंचे हैं ? क्या हमने आत्मविश्लेषण किया है कि क्यों हमारे भीतर से ही यह रोशनी बुझती जा रही है?

2011 की जनगणना के आंकड़े हमें आईना दिखाते हैं। जैन समाज में लिंगानुपात खतरनाक रूप से असंतुलित है प्रति 1000 लड़कों पर केवल 889 लड़कियां। राजस्थान में यह गिरकर 859, गुजरात में 872 और कुछ ज़िलों में तो स्थिति और भी भयावह है जैसे उत्तर दिल्ली (752), बीड (763) और देहरादून (764)। यह आंकड़े केवल डेटा नहीं, बल्कि हमारी चेतना पर चोट हैं। एक ऐसा समाज जो ‘जीव दया’ और ‘अहिंसा’ को जीवन का मूल मानता है, उसके भीतर कन्या भ्रूण हत्या जैसी मानसिकता कैसे पल गई ? यह उस मूल दर्शन से विचलन नहीं तो और क्या है?

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शिक्षा के क्षेत्र में जैन समाज सदैव अग्रणी रहा है। देश में सबसे अधिक साक्षरता दर (95%) इसी समुदाय की है। फिर भी लगभग दो लाख जैन आज भी निरक्षर हैं विशेषतः महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान और मध्य प्रदेश जैसे राज्यों में। यह विरोधाभास संकेत करता है कि शिक्षा के बावजूद कहीं कुछ छूटा है। हमारी ज्ञान परंपरा इतनी समृद्ध थी कि हजारों वर्ष पूर्व रचित तिलोयपन्नत्ति, अष्टपाहुड़, भगवती सूत्र जैसे ग्रंथ आज भी वैज्ञानिक दृष्टि से अद्वितीय माने जाते हैं लेकिन क्या उस परंपरा का प्रवाह हमारी आने वाली पीढ़ियों तक पहुंच रहा है?

शायद सबसे बड़ी चिंता जैन समुदाय की जनसंख्या में आयु आधारित असंतुलन। 0–14 वर्ष के बच्चों की संख्या केवल 20.7% है, जबकि 60 वर्ष से ऊपर के लोगों की संख्या 12.8% तक पहुंच गई है। यह अनुपात भारत के किसी भी अन्य समुदाय की तुलना में अधिक असंतुलित है। हमारे धार्मिक आयोजनों, प्रवचनों और मंदिरों में हमें अधिकतर बुजुर्ग ही दिखाई देते हैं युवा कहां हैं? क्या उन्हें हमारा दर्शन आकर्षित नहीं कर रहा ? या हमने उन्हें उस भाषा में कभी बताया ही नहीं जिसमें वे समझ सकें?

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जनसंख्या में यह गिरावट केवल संख्या का संकट नहीं है, बल्कि संस्कृति और परंपरा के अस्तित्व का प्रश्न बन चुकी है। National Family Health Survey के अनुसार, जैन समुदाय की कुल प्रजनन दर मात्र 1.1 है, जो भारत की न्यूनतम दर है। यह दर उस बिंदु से भी नीचे है जिससे जनसंख्या स्थिर रह सके (2.1)। अगर 2011 से 2061 तक के आंकड़ों की प्रवृत्ति देखें, तो 0–29 वर्ष की आयु वर्ग में लगभग 70% की गिरावट हो सकती है। यानी अगली दो पीढ़ियों में विवाह, परिवार, सामाजिक जीवन और धार्मिक परंपराएं सब कुछ संकट में होगा।

इन आंकड़ों के पीछे कारण क्या हैं ? शिक्षा, समृद्धि, शहरीकरण, विलासिता, सीमित परिवार की प्रवृत्ति और बाहर विवाह ये सभी मिलकर उस जड़ को काट रहे हैं जो हजारों वर्षों से हमारी पहचान रही है और जब जैन नहीं बचेंगे तो जैन दर्शन भी नहीं बचेगा। एक दिन जब युद्धों से, प्रदूषण से, लालच और हिंसा से त्रस्त यह दुनिया राहत की खोज में होगी। तब वह याद करेगी कि एक समय ऐसा भी था जब एक समुदाय सूरज ढलने से पहले भोजन करता था, पैरों में झाड़ू बांधकर चलता था और मूक प्राणियों के लिए भी संवेदनशील था।

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तब तक शायद बहुत देर हो चुकी हो। यह केवल धर्म का नहीं, मानवता का नुकसान होगा। आज जब विश्व योग, ध्यान, पर्यावरण संरक्षण की बात करता है तो वह अनजाने ही जैन दर्शन के मूल में प्रवेश करता है पर बिना यह जाने कि इनका मूल स्त्रोत क्या था।
अब प्रश्न यह नहीं कि समस्या क्या है। वह तो स्पष्ट है। प्रश्न यह है कि हम क्या कर रहे हैं ? क्या हम जाग भी रहे हैं या केवल देख-सुनकर आगे बढ़े जा रहे हैं?

क्या हम सच में जैनत्‍व का अंत चाहते हैं? या हम अपने भीतर के उस आलोक को फिर से प्रज्वलित करना चाहते हैं, जो पूरे जगत को दिशा दिखा सकता है?

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अब सवाल हमें खुद से पूछने होंगे—
    •    क्या हम जैन कहलाने भर से संतुष्ट हैं, या जैन सिद्धांतों को सचमुच जी रहे हैं?
    •    क्या हमारी अगली पीढ़ी जैन धर्म की गहराई, वैज्ञानिकता और सार्वभौमिकता को समझती है?
    •    क्या हमारी शिक्षा और समृद्धि हमें समाज से जोड़ रही है या अलग-थलग कर रही है?
    •    क्या हम अपने बच्चों को केवल कैरियर और पैसे के लिए तैयार कर रहे हैं या उन्हें मूल्य, दर्शन और जीवनदृष्टि भी दे रहे हैं?
    •    क्या मंदिरों और साधु-साध्वियों के बीच बैठकर भी हम केवल उपवास गिन रहे हैं, या भीतर उद्देश्य खोज रहे हैं?
    •    क्या हमने कभी जैन सिद्धांतों को विज्ञान, पर्यावरण और वैश्विक शांति के संदर्भ में बच्चों से साझा किया है?

अब निर्णय हमारा है जैन धर्म किताबों और इतिहास के पन्नों तक सिमटे या हमारे विचार, व्यवहार और संस्कृति में जीवित रहे। समय कम है लेकिन अभी भी कुछ किया जा सकता है, यदि हम एक साथ, सच में जाग जाएं।

tanu

डॉ. तनु जैन, सिविल सेवक और आध्यात्मिक वक्ता
रक्षा मंत्रालय

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