Edited By Niyati Bhandari,Updated: 28 Jun, 2019 02:33 PM
धर्मशास्त्र में स्वर्ण को धातुओं का राजा कहा गया है, क्योंकि स्वर्ण में जंग नहीं लगता। यह खराब नहीं होता। इसकी कांति व चमक स्थायी रहती है। इसलिए देवताओं के आभूषण, राजसी पूजा के लिए स्वर्ण
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धर्मशास्त्र में स्वर्ण को धातुओं का राजा कहा गया है, क्योंकि स्वर्ण में जंग नहीं लगता। यह खराब नहीं होता। इसकी कांति व चमक स्थायी रहती है। इसलिए देवताओं के आभूषण, राजसी पूजा के लिए स्वर्ण सिंहासन एवं स्वर्ण के बर्तन ही काम में लिए जाते हैं। इसके बाद चांदी फिर तांबा, कांस्य एवं पीतल प्रतिमाओं का स्थान आता है। इनकी वैज्ञानिकता मान्यता इस प्रकार है :
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सोने के बर्तन : वैदिक युग में इसका प्रयोग राजा-महाराजा किया करते थे। ऐसी कई पौराणिक कहानियां मिलती हैं जिनमें किसी राजा द्वारा ऋषि-मुनियों का सत्कार करने के लिए सोने के बर्तनों का प्रयोग किया जाता था। कृष्ण भगवान ने भी सोने के बर्तनों का प्रयोग किया था और सोने के बर्तन में सुदामा के पैर धोए थे। सोने के बर्तन में जंग नहीं लगता। विशुद्ध सोने के बर्तन का प्रयोग करने से शरीर में बल और वीर्य की वृद्धि होती है। स्वर्ण में रोग प्रतिरोधक शक्ति सबसे अधिक होती है।
फ्रांस के मशहूर विद्वान बरंग्गार तो यहां तक कहते थे कि सोने का अधिक से अधिक उपयोग करने से मनुष्य कैंसर जैसी घातक बीमारियों से बच सकता है। प्रयोगों में यह सिद्ध हो गया है कि सोने में रोग-प्रतिरोधक क्षमता बहुत ज्यादा होती है। आयुर्वेद के अनुसार-‘‘स्वर्ण, शीतल,वीर्यवद्र्धक, बलदायक, भारी, रसायन, स्वादिष्ट, कड़वा, कसैला, पाक में मीठा, पिच्छिल, पवित्र, पुष्टिदायक, नेत्रों को हितकारी, बुद्धि, स्मरणशक्ति तथा विचारशीलदायक, हृदय को प्रिय, आयु को बढ़ाने वाला, कांति तथा वाणी को स्वच्छ करने वाला, स्थिरतादायक व दो प्रकार के स्थावर, जंगम विष, क्षय, उन्माद, तीनों दोष व ज्वर का नाशक है।’’
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चांदी के बर्तन : चांदी के बर्तन भी प्राचीनकाल से प्रयोग होते आ रहे हैं। आज भी कई सम्पन्न घरों में चांदी के टी सैट और गिलास आदि का उपयोग होता है। चांदी की प्रकृति शीतल होती है। अत: चांदी के बर्तनों का प्रयोग पित्त को दूर करता है, मानसिक शांति व शरीर में शीतलता प्रदान करता है। यही नहीं, चांदी के बर्तनों का प्रयोग करने से आंखों की ज्योति भी बढ़ती है।
आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार चांदी शीतल, कसैली, खट्टी, पाक में तथा रस में मधुर, दस्तावर, आयुस्थापक, स्निग्ध, रेचक, वात तथा पित्तर को जीतने वाली और प्रमेहादि रोगों को शीघ्र नष्ट करती है।
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तांबे के बर्तन : आधुनिक युग में तांबे के बर्तन आऊटडेटेड हो गए हैैं। हां, अभी भी मंदिर में पूजा के बर्तन तांबे के ही होते हैं। तांबा भी कम गुणकारी नहीं। कब्ज के मरीजों के लिए तांबे के बर्तन विशेष हितकारी होते हैं। तांबे के बर्तन में रखा बासी पानी पीने से पेट साफ हो जाता है। तांबे के बर्तन चूंकि अपेक्षाकृत अधिक भारी होते हैं, अत: उसमें खाना धीरे-धीरे पकता है जो अधिक पौष्टिक होता है। तेज आग पर खाना पकाने से भोजन में पौष्टिक तत्व कम हो जाते हैं।
भावप्रकाश के अनुसार कार्तिकेय स्वामी का शुक्र पृथ्वी पर गिरने से तांबा हो गया। यह तांबा, कसैला, मधुर, कड़वा, खट्टा, पाक में चटपटा, दस्तावर, पित्त तथा कफ को नष्ट करने वाला, शीतल, रोपण (घाव को भरने वाला) पाण्डुरोग, उदररोग, बवासीर, ज्वर, कुष्ठ रोग, खांसी, श्वास, क्षय, अम्लपित्त, सूजन, कृमि तथा शूल को नष्ट करता है।
कांसे के बर्तन : पहले कांसे के बर्तनों का प्रयोग किया जाता था। आजकल वैसे तो इनका प्रयोग नहीं किया जाता है लेकिन बड़े बुजुर्गों की रसोई में कांसे के कुछ बर्तन तो अब भी मिल ही जाएंगे। ये बर्तन भी कम हितकारी नहीं होते। इन बर्तनों के प्रयोग से पित्त की शुद्धि होती है और बुद्धि बढ़ती है। आयुर्वेद के अनुसार पीतल का पात्र वातकारक रुक्ष, ऊष्ण और कृमि तथा कफ को दूर करने वाला होता है।
पीतल के बर्तन : जब तक स्टील के बर्तन अधिक प्रचलित नहीं थे तब तक पीतल के बर्तनों का बहुतायत में प्रयोग होता था। आज भी प्रत्येक रसोई में पीतल के कुछ बर्तन विशेष रूप से भगौने आदि तो मिल ही जाएंगे। पीतल की प्रकृति गर्म होती है। अत: इन बर्तनों में बनाया गया भोजन कफ को दूर करता है। पीतल के बर्तनों में कीटाणुओं को नष्ट करने की क्षमता भी कम नहीं होती। अत: पीतल के बर्तनों में तैयार भोजन शरीर को निरोग रखता है। लेकिन पीतल के बर्तनों पर कलई करवाना आवश्यक है क्योंकि बिना कलई किए हुए बर्तनों में खट्टी वस्तु पकाने पर विष हो जाती है।