महाभारत: युधिष्ठिर के डांटने पर दुर्योधन बना दंडधारी यमराज !

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 23 Oct, 2019 07:08 AM

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निष्कण्टक राज्य पाने की लालसा से दुर्योधन कौरव-सेना को आए दिन नए सेनापति बनाकर संगठित और उत्साहित करता था लेकिन सेनापति मद्रराज शल्य की मृत्यु और पांडवों की मार पडऩे से दुर्योधन की सेना भयभीत होकर चारों ओर

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निष्कण्टक राज्य पाने की लालसा से दुर्योधन कौरव-सेना को आए दिन नए सेनापति बनाकर संगठित और उत्साहित करता था लेकिन सेनापति मद्रराज शल्य की मृत्यु और पांडवों की मार पडऩे से दुर्योधन की सेना भयभीत होकर चारों ओर भागने लगी।  कुछ लोग घोड़ों पर चढ़ कर भागे और कुछ लोग हाथियों पर। बहुतेरे रथ में ही बैठकर नौ दो ग्यारह हो गए। बेचारे पैदल योद्धा भय के मारे बड़े जोर से भाग रहे थे। उन सबको हिम्मत खोकर भागते देख विजयाभिलाषी पांडवों और पांचालों ने दूर तक उनका पीछा किया। इसी बीच दुर्योधन इक्कीस हजार सैनिकों के साथ अपना रथ लेकर उनके बीच आ गया। फिर तो हर्ष में भरे हुए उन योद्धाओं और पांडवों में घमासान युद्ध होने लगा। दंडधारी यमराज की भांति वीर भीमसेन ने अकेले ही अपनी गदा से इक्कीस हजार योद्धाओं को मार गिराया लेकिन समस्त पांडव एक साथ होकर भी दुर्योधन को परास्त नहीं कर सके।

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मौका पाकर दुर्योधन ने अपनी भागती सेना को वापस बुला लिया। फिर क्या था? चारों ओर बाणों की वर्षा होने लगी। यह एक ऐसा युद्ध हुआ जिसमें कौरवों की पूरी-की-पूरी ग्यारह अक्षौहिणी सेना मारी गई। लडऩे वाले हजारों राजाओं में केवल एक दुर्योधन ही बचा। अब उसके पास न सेना थी, न सवारी। उधर पांडवों के पास दो हजार रथी, सात सौ हाथी सवार, पांच हजार घुड़सवार और दस हजार पैदल सेना थी। ग्यारह अक्षौहिणी सेना का मालिक दुर्योधन अपना कोई सहायक न देखकर अपनी गदा लेकर पूर्व दिशा की ओर स्थित सरोवर में जा छिपा।

धर्मात्मा युधिष्ठिर अपने भाइयों के साथ दुर्योधन का वध करने के लिए उसका पता लगाने लगे। गुप्तचर छोड़े गए पर उसका कहीं कोई पता न चला। संयोगवश कुछ व्याधों ने कृपाचार्य, अश्वत्थामा तथा कृतवर्मा द्वारा दुर्योधन से की जा रही वार्ता को सुनकर धन के लोभ से पांडवों को दुर्योधन का पता बता दिया। युधिष्ठिर अपने भाइयों तथा सेना सहित उस सरोवर के पास आ पहुंचे जहां दुर्योधन छिपा था। कृपाचार्य आदि पांडवों को देखते ही दुर्योधन की आज्ञा लेकर चले गए।

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सरोवर पर पहुंच कर युधिष्ठिर ने हंसते-हंसते पानी में छिपे हुए दुर्योधन से कहा, ‘‘सुयोधन! यह कैसा अनुष्ठान कर रहे हो? समस्त क्षत्रियों तथा अपने कुल का संहार कराकर अब अपनी जान बचाने के लिए सरोवर में जा घुसे हो?’’

दुर्योधन ने पानी में से ही जवाब दिया, ‘‘मैंने प्राणों के भय से नहीं, बल्कि थक जाने के कारण ऐसा किया है। अब मुझे राज्य की इच्छा नहीं है। मेरा अपना कहा जाने वाला जब कोई जीवित न रहा तो मैं स्वयं भी जीवित नहीं रहना चाहता।’’

युधिष्ठिर ने दुर्योधन को डांटकर कहा कि, ‘‘जल से बाहर निकलो, मैं तो तुम्हें युद्ध में जीतकर ही राज्य का उपभोग करूंगा।’’

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युधिष्ठिर की फटकार तथा कड़वी बातें सुनकर दुर्योधन बोला, ‘‘मैं तुम्हारे साथ युद्ध कैसे कर सकता हूं, तुम अपने हितैषी, सेना तथा वाहन आदि के साथ हो और मैं अकेला। यदि तुम बारी-बारी से एक-एक वीर को लड़ाओ तो मैं बाहर आऊं?’’

युधिष्ठिर ने उसे आश्वासन देकर कहा, ‘‘दुर्योधन! उठो तो सही। आओ, मेरे साथ ही गदा युद्ध करो।’’

युधिष्ठिर के इस कथन को दुर्योधन सहन न कर सका। वह कंधे पर लोहे की गदा रखकर बंधे हुए जल को चीरता हुआ बाहर निकलने लगा। उस समय वह दंडधारी यमराज के समान लग रहा था। उसे पानी से बाहर निकलते देख पांडव तथा पांचाल बहुत प्रसन्न हुए और ताली पीटने लगे।


 

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