Edited By Sarita Thapa,Updated: 09 Aug, 2025 10:40 AM

Motivational Story: कहते हैं कि मनुष्य स्वयं अपने जीवन का वास्तुकार है, अत: यह कहना उचित होगा कि हम सभी ने अपने जीवन को अपनी पसंद अनुसार बनाया है, परन्तु जब हमारे साथ कुछ गलत या अवांछित हो जाता है, तब हम आत्म अवलोकन किए बिना ही तुरंत उसका दोष किसी...
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Motivational Story: कहते हैं कि मनुष्य स्वयं अपने जीवन का वास्तुकार है, अत: यह कहना उचित होगा कि हम सभी ने अपने जीवन को अपनी पसंद अनुसार बनाया है, परन्तु जब हमारे साथ कुछ गलत या अवांछित हो जाता है, तब हम आत्म अवलोकन किए बिना ही तुरंत उसका दोष किसी के माथे मढ़ देते हैं। इस तथ्य से कोई भी इंकार नहीं करेगा कि हम सभी अपना अमूल्य समय और ऊर्जा अक्सर दूसरों पर अपनी समस्याओं का दोष मढ़ने में बर्बाद कर देते हैं, मगर हम क्यों किसी को हर बार दोष दें? इंसान की तो फितरत में ही है कि ‘गिरा तो भी पांव ऊपर’ अर्थात खुद को गलती करने के अपराध बोध से बचाने के लिए और साथ-साथ खुद के किए हुए (गलत) कर्म को न्यायोचित ठहराने के लिए किसी व्यक्ति, स्थिति या कोई बाहरी कारक को बलि का बकरा बनाकर खुद को निर्दोष साबित करके ही रहते हैं।
परन्तु दोषारोपण के इस खेल में हम भूल जाते हैं कि ‘कर्म के नियम’ अनुसार जो व्यक्ति पहले खुद को बदलता है, उसे खुशी का उपहार प्राप्त होता है। यदि हम जीवन में खुशी और सुख चाहते हैं, तो किसी और का इंतजार करने की बजाय खुद को ही सर्वप्रथम परिवर्तित करना होगा। अमूमन लोग अपने जीवन में आने वाली विपदाओं एवं दुखों के लिए दूसरों को कोसते रहते हैं और अंदर ही अंदर बड़बड़ाते रहते हैं कि ‘फलाने ने हमसे ऐसा न किया होता तो आज हमारा यह हाल न होता’, परन्तु ऐसे वक्त पर अक्सर लोग इस सार्वभौमिक नियम को भूल जाते हैं कि ‘हर क्रिया की एक विपरीत और समान प्रतिक्रिया होती है’, अत: खुद को देखने की बजाय हर वक्त हम सामने वाले को ठीक करने की जद्दोजहद में ही अपनी सारी ऊर्जा जाया करते रहते हैं।

इसी प्रकार जब हमें दोष देने के लिए कोई व्यक्ति दिखाई नहीं पड़ता, तब हम बड़ी चतुराई से परिस्थिति को दोष देने लगते हैं लेकिन, ऐसा करने में हम यह भूल जाते हैं कि वर्तमान में हमारे जीवन की जो भी परिस्थितियां हैं, वे सभी हमारी अपनी ही पैदाइश हैं। अत: ‘कर्म फिलॉसफी’ के अनुसार जो कुछ भी हम आज अनुभव कर रहे हैं, वह हमारे ही भूतकाल में किए हुए किसी कर्म या गलत सोच का नतीजा है इसलिए जब हमारे सामने अपने उस पूर्व कर्म के हिसाब को चुकता करने का मौका आता है, तो हमें सहर्ष उसका लाभ उठाकर खुद को बोझ मुक्त करना चाहिए, किन्तु हम ऐसा नहीं करते, क्यों? क्योंकि महसूस करने की लम्बी प्रक्रिया से बचने के लिए और अपने आलस्य के स्वभाव से मजबूर अधिकांश दोष का टोकरा किसी और के सिर रख देते हैं। सर्वांगीण विकास के लिए दोष देने की आदत प्रमुख बाधाओं में से एक है, इसलिए जितना हो सके, उतना इससे बचना अनिवार्य है।