Edited By ,Updated: 02 Jan, 2017 04:42 PM

एक अगस्त सन् 1882 अर्थात ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध हुए प्रथम आजादी समर के पच्चीस वर्ष पश्चात इलाहाबाद में जन्मे थे पुरुषोत्तम दास टंडन। बाल्यकाल से ही मेधावी
एक अगस्त सन् 1882 अर्थात ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध हुए प्रथम आजादी समर के पच्चीस वर्ष पश्चात इलाहाबाद में जन्मे थे पुरुषोत्तम दास टंडन। बाल्यकाल से ही मेधावी अपनी परम्पराओं के प्रति अनुरक्त पुरुषोत्तम ने अपनी नाम संज्ञा को अपने जीवन वृत्त से सार्थक सिद्ध किया। बाल्यकाल से ही वह वैदिक परम्पराओं के प्रति अनुरक्त रहे। उन्होंने वकालत की परीक्षा में सफलता प्राप्त कर अधिवक्ता के रूप में ख्याति अर्जित की परन्तु राष्ट्रप्रेम की भावनाओं से प्रेरित पुरुषोत्तम दास ने स्वदेश की स्वतंत्रता हेतु जारी अभियान में मौखिक नहीं अपितु सक्रिय योगदान दिया और आंदोलन में सक्रिय सहयोग ने उनकी जीवन दिशा ही बदल दी। सन् 1921 में पुरुषोत्तम दास टंडन ने असहयोग आंदोलन में सक्रिय योगदान कर अपनी पहली जेलयात्रा की थी। उसके बाद तो मातृभूमि की बंधनमुक्ति के लिए संघर्ष पथ के पथिक बने पुरुषोत्तम दास टंडन ने कई बार कारावास झेला। नमक सत्याग्रह में भी यह नर-रत्न आजादी साधक सक्रिय रहा।
सविनय अवज्ञा आंदोलन में भी उन्हें बंदी बनाया गया। भारत माता के महान सपूत श्री टंडन ने हिंदी के प्रचार-प्रसार के अग्रदूत की भूमिका का निर्वहन किया। 1937 में, पुरुषोत्तम दास टंडन उत्तर प्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष चुने गए थे जबकि 1942 के अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन में सक्रिय सहभागिता के चलते वह सातवीं बार जेल गए।स्वाभिमानी किंतु अहंकार और दम्भ की भावना से सर्वथा दूर रहे पुरुषोत्तम दास टंडन ने अपने जीवन मूल्यों को ही अपने व्यक्तित्व का श्रृंगार बनाया। सादा जीवन उच्च विचार की वैदिक विधा को बिना किसी दुविधा के उन्होंने अपनी जीवनशैली बनाया और अपनाया। भारतीय संस्कृति के प्रति मनसा, वाचा कर्मणा अनुरक्त श्री टंडन के दाढ़ीयुक्त चेहरे पर ज्ञान की आभा तो दमकती ही थी। उनके दर्शन कर दर्शक उनमें प्राचीन भारतीय ऋषियों का भी आभास पाते थे।
आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानंद सरस्वती के जीवन से प्रेरणा ग्रहण करते रहे इस महान कर्मयोगी ने देश की राजधानी दिल्ली स्थित आर्य समाज दीवान हाल के सभागार का भी उद्घाटन किया था। राजनीतिक क्षेत्र में एक निष्ठावान कांग्रेसजन के रूप में वे अनेक लोगों के प्रेरक रहे परन्तु हिंदुत्व के प्रति अपनी निष्ठा के निर्वहन में भी श्री पुरुषोत्तम दास टंडन ने कभी आंच नहीं आने दी। स्वदेश की स्वतंत्रता के बाद संविधान में हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर प्रतिष्ठित कराने में भी पुरुषोत्तम टंडन का सराहनीय योगदान रहा। उनके जीवन की वह घटना निश्चय ही उल्लेखनीय है जब 15 अप्रैल, 1948 को सरयू नदी के तट पर संत देवरहा बाबा से उनका ऐतिहासिक साक्षात्कार हुआ।
वहां एक भव्य समारोह में देवरहा बाबा ने उन्हें राजर्षि के सम्मान से विभूषित किया। राजर्षि टंडन को लोक सेवा संघ का अध्यक्ष भी बनाया गया। तत्कालीन राष्ट्रपति डा. राजेन्द्र प्रसाद ने उन्हें ‘राजर्षि टंडन अभिनंदन ग्रंथ’ समर्पित किया था। अपनी सैद्धान्तिक निष्ठाओं के समर्पित महान मनीषी भारतीय संस्कृति के प्रति अडिग निष्ठा के धनी राजर्षि ने अपने मान्य सिद्धांतों पर कभी भी समझौता नहीं किया। बड़े-बड़े नेताओं के विरोध को भी उन्होंने बड़े ही धैर्य सहित झेला। प्राचीन भारतीय संस्कृति और सभ्यता की जीवित जागृत प्रतिमूर्ति रहे श्री पुरुषोत्तम दास टंडन ने एक जुलाई, 1961 को अपनी नश्वर काया का परित्याग कर अमरत्व की राह ली।