जानें श्रीराम को क्यों कहते हैं,‘मर्यादा पुरुषोत्तम’

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 18 Jun, 2018 04:48 PM

shriram maryada purushottam

भारत में बड़े-बड़े महापुरुष तथा ऋषि-मुनि हुए हैं किंतु भगवान राम के प्रति आस्था रखने वाले लोगों की संख्या इतने वर्षों के बीत जाने के बाद भी कम नहीं हुई और न ही उनकी मान्यता में कोई कमी आई है। यदि इसके कारणों पर विचार करें तो यह पता चलता है कि

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भारत में बड़े-बड़े महापुरुष तथा ऋषि-मुनि हुए हैं किंतु भगवान राम के प्रति आस्था रखने वाले लोगों की संख्या इतने वर्षों के बीत जाने के बाद भी कम नहीं हुई और न ही उनकी मान्यता में कोई कमी आई है। यदि इसके कारणों पर विचार करें तो यह पता चलता है कि भगवान राम का जीवन कुछ इस तरह भारत के जन-जन के हृदय पटल पर अंकित हो गया है कि उसे काल की कोई अवधि मिटा नहीं सकती।

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इस देश के लोग श्रीराम को ‘मर्यादा पुरुषोत्तम’ कहते हैं। अर्थात वह मनुष्य जो मर्यादा बना सकता है। भगवान राम उसकी अंतिम सीमा थे। वह पुरुष भी उत्तम थे और उनकी मर्यादाएं भी उत्तम थीं। उन्होंने मानव मात्र के लिए मर्यादा पालन का जो आदर्श प्रस्तुत किया वह संसार के इतिहास में कहीं और नहीं मिल सकता।

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उन्होंने अपना पहला आदर्श आज्ञाकारी पुत्र के रूप में प्रस्तुत किया। उनके पिता राजा दशरथ अपनी रानी कैकेर्यी से वचनबद्ध थे। रानी कैकेयी ने ठीक उस समय जब राम का राज्याभिषेक होने वाला था, राम को वनवास और अपने पुत्र भरत के लिए राजतिलक की मांग कर दी।

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दशरथ नहीं चाहते थे परंतु अपने पिता के वचन का पालन करने के लिए राम ने एक पल में राजपाट को त्याग दिया और वनवासी बनकर वनों को चले गए। पूरे चौदह वर्ष उन्होंने वन में बिताए। ऐसा आदर्श कौन प्रस्तुत कर सकता है। संसार में जितने भी युद्ध और लड़ाइयां अब तक हुई हैं वे राज प्राप्ति के लिए हुई हैं परंतु भगवान राम ने जो आदर्श प्रस्तुत किया उसकी तो कल्पना भी नहीं कर सकते।

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दूसरा आदर्श उन्होंने एक आदर्श भाई का प्रस्तुत किया। यद्यपि भरत की माता कैकेयी ने उन्हें राजपाट के बदले वनवास दिलाया था परंतु श्रीराम ने भरत से न ईर्ष्या की और न द्वेष। वह निरंतर भरत के प्रति अपना प्रेम प्रदर्शित करते रहे और उसे राज-काज संभालने की प्रेरणा देते रहे। उन्होंने उसे कभी अपना प्रतिद्वंद्वी नहीं समझा। मर्यादा पुरुषोत्तम राम के द्वारा स्थापित आदर्श भातृ-प्रेम के आदर्श को अपनाकर हम उनसे प्रेरणा ले सकते हैं।


तीसरा आदर्श उन्होंने आदर्श पति का प्रस्तुत किया। वह चौदह वर्ष वनों में वनवासी होकर रहे और वनों में रहने वाले ऋषियों-मुनियों की सेवा का व्रत लिया। जो राक्षस ऋषियों के यज्ञ में विघ्न डालते थे उन राक्षसों का संहार किया। इस काल में उन्होंने गृहस्थ की चिंता नहीं की अपितु अपनी संपूर्ण शक्ति को राक्षसों का संहार करने के लिए लगाया। 


रावण ने जब उनकी धर्मपत्नी सीता जी अपहरण करने का दु:स्साहस किया तो भगवान श्रीराम ने इस दुष्कृत्य के लिए रावण का सर्वनाश कर दिया।


सबसे बड़ी बात यह है कि वह एक आदर्श राजा थे। आज भी लोग रामराज्य की कामना करते हैं। राज्य तो था ही राजा के लिए किंतु श्रीराम ने राजा का जो आदर्श प्रस्तुत किया उसे आज तक कोई भुला नहीं सकता। आज समस्त संसार राम राज्य की कामना और अभिलाषा रखता है। महात्मा गांधी भी अपने देश में राम राज्य की स्थापना करना चाहते थे। 


रामराज्य में कोई चोर नहीं था, कोई व्यभिचारी नहीं था, कोई भ्रष्टाचारी नहीं था। किसी प्रकार का कोई कष्ट-क्लेश राम राज्य में नहीं था इसीलिए सारी प्रजा सुखी थी। 
संक्षेप में भगवान राम की लाखों वर्ष पश्चात भी भारतीय जनमानस में स्मृति बने रहने का मूल कारण उनका अपना आदर्श जीवन है। यही कारण है कि भगवान राम हिंदू संस्कृति और सभ्यता के एक अभिन्न अंग बन गए हैं।


भगवान राम का पवित्र और आदर्श जीवन यही प्रेरणा देता है कि हम उनकी मर्यादाओं का पालन करते हुए अपने जीवन, अपने परिवार और अपने देश को सुखी और शांतिमय बनाएं।


हमें विचार करना है कि हम कहां तक मर्यादा पुरुषोत्तम राम की मर्यादाओं तथा उनके आदर्शों को अपने जीवन में उतारने का प्रयास कर रहे हैं।  भगवान राम ने जो आदर्श और भ्रातृप्रेम के उदाहरण प्रस्तुत किए हैं उन आदर्शों को अपनाए बिना हम राम राज्य की कल्पना भी नहीं कर सकते। 


भ्रातृप्रेम, पिता की आज्ञा का पालन करना, अपनी मर्यादाओं का पालन करने के लिए चट्टान की तरह अडिग रहना, ये गुण हम श्रीराम के जीवन से सीख सकते हैं। श्रीराम का जीवन हमें सिखाता है कि विपरीत परिस्थितियों में भी किस प्रकार धैर्य से काम लिया जाता है। सुख और दुख में किस प्रकार समान भाव से रहा जाता है। 


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