Srimad Bhagavad Gita: ‘शुभ और अशुभ सभी कर्मों का फल भोगना पड़ता है’

Edited By Updated: 16 Sep, 2021 09:22 AM

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गीता में योगीराज श्री कृष्ण महाराज ने संदेश दिया है कि-‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कर्म कृतं शुभाशुभम’’ अर्थात व्यक्ति को अपने किए हुए शुभ और अशुभ सभी कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ा है।

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Srimad Bhagavad Gita: गीता में योगीराज श्री कृष्ण महाराज ने संदेश दिया है कि-‘‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कर्म कृतं शुभाशुभम’’ अर्थात व्यक्ति को अपने किए हुए शुभ और अशुभ सभी कर्मों का फल अवश्य ही भोगना पड़ा है। नीति शास्त्रकारों ने मनुष्य के कर्म करने की तुलना किसान के साथ की है। वह कहते हैं कि-यो यद वपति बीजं लभते हि तादृशं फलं अर्थात जिस प्रकार एक किसान अपने खेत में जिस फसल का बीज बोता है, वही बीज फसल के रूप में किसान काटता है। इस सिद्धांत के विरुद्ध न कभी आज तक हुआ है और न कभी आगे होगा इसलिए कहावत प्रसिद्ध है कि बोय पेड़ बबूल के तो आम कहां से होय।

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यही व्यवस्था परमात्मा द्वारा बनाई गई सृष्टि में मनुष्यों के ऊपर लागू होती है। परमात्मा ने मनुष्य को कर्म करने के लिए स्वतंत्र रखा है। इंसान जैसा चाहे कर्म कर सकता है। अच्छे या बुरे कर्म मनुष्य की विवेक शक्ति के ऊपर निर्भर करते हैं। मनुष्य अपने जीवन में जैसे-जैसे कर्म करता जाता है वैसे-वैसे ही उसके जीवन का निर्माण होता जाता है परंतु परमात्मा ने मनुष्य को केवल कर्म करने की स्वतंत्रता दी है। कर्मफल व्यवस्था परमात्मा के अधीन है।

जैसे कर्म किए हैं वैसा ही फल मिलेगा। यह निश्चित है क्योंकि परमात्मा न्यायकारी है। परमात्मा मनुष्य द्वारा किए जाने वाले प्रत्येक कर्मों को जानने वाला है। परमात्मा के आगे किसी की सिफारिश नहीं चलती, परमात्मा को कोई रिश्वत नहीं दे सकता इसलिए परमात्मा को पूर्ण न्यायकारी कहा गया है। परमात्मा की अटल न्याय व्यवस्था से कोई भी आज तक न तो बचा है और न ही आगे बचेगा इसलिए अच्छे कर्म करने वाला व्यक्ति निर्भय होता है। बुरा कर्म करने वाला व्यक्ति हर समय भयभीत होता है। उसके मन में सदैव यह शंका रहती है कि कभी मेरे बुरे कर्म सामने न आ जाएं। बुरे कर्मों के सामने आते ही उसे उन कर्मों का फल मिलना शुरू हो जाता है।

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हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि व्यक्ति जिस प्रकार का व्यवहार समाज के प्रति करता है उसके प्रति भी वैसा ही व्यवहार करना चाहिए। चाणक्य नीति के 17वें अध्याय में चाणक्य ने लिखा है कि : कृते प्रतिकृतं कुर्याद् हिंसने प्रतिहिंसनम्। तत्र दोषो न पतति दुष्टे दुष्टं समाचरेत॥

अर्थात उपकार करने वाले के प्रति प्रत्युपकार करना चाहिए, हिंसा करने वाले के प्रति हिंसा का व्यवहार करना चाहिए। ऐसा करने पर दोष नहीं होता क्योंकि दुष्ट के प्रति दुष्टता का आचरण करना चाहिए, वही उचित होता है। महर्षि दयानंद सरस्वती जी ने आर्य समाज के सातवें नियम में लिखा है- सबके साथ प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार यथायोग वर्तना चाहिए। उपकारी के प्रति प्रत्युपकार करना चाहिए परंतु जो हमारा नाश करने पर उतारू है हमारी संस्कृति, सभ्यता और धर्म का ही नाश करने पर तुला हुआ है, ऐसे दुष्टों का तो वध ही कर देना चाहिए। वेद का आदेश हैं :

मायाभिर्मायिनं सक्षदिन्द्र :

अर्थात हे मनुष्य तू मायावियों को, दुष्टों को, छल करने वालों को मार गिरा। महर्षि व्यास का कथन है कि जो मनुष्य जिसके साथ जैसा व्यवहार करे उसके प्रति वैसा ही व्यवहार करना चाहिए, यह धर्म है। ठगी से व्यवहार करने वाले के साथ ठगी का व्यवहार करना चाहिए और भला करने वाले के साथ भलाई का व्यवहार करना चाहिए। इस प्रकार शास्त्रों में, वेदों में दुष्टों की निंदा की गई है और यथापूर्वक व्यवहार करने का आदेश दिया गया है।’’

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