श्रीहरि को छोड़ना पड़ा बैकुंठ का वास, पढ़ें वाराह अवतार की कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 31 Aug, 2019 12:29 PM

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एक बार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनत-सनकादि भगवान विष्णु के दर्शन करने बैकुंठ धाम पहुंचे। बैकुंठ में विष्णु धाम के द्वार पर भगवान के दो पार्षद जय-विजय द्वारपालों के रूप में बैठे थे। इन दिगम्बर साधुओं को

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एक बार ब्रह्मा जी के मानस पुत्र सनत-सनकादि भगवान विष्णु के दर्शन करने बैकुंठ धाम पहुंचे। बैकुंठ में विष्णु धाम के द्वार पर भगवान के दो पार्षद जय-विजय द्वारपालों के रूप में बैठे थे। इन दिगम्बर साधुओं को देखकर पहले तो उन्हें हंसी आ गई और फिर पूछा, ‘‘आप लोग कौन हैं, ऐसे नंग-धड़ंग यहां कहां चले आ रहे हैं?’’

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सनत ने बुरा नहीं माना, क्योंकि ये द्वारपाल थे और बिना पूरी जांच-पड़ताल के कैसे अंदर जाने देते। अपनी वेशभूषा पर उनके हंसने का भी बुरा नहीं माना, क्योंकि बैकुंठ जैसे वैभवशाली परिवेश में ऐसे साधुओं का क्या काम! उनके प्रश्रों का उत्तर देते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हम सनत कुमार भगवान विष्णु के दर्शन करना चाहते हैं। हम सदा इसी रूप में रहते हैं। इसलिए हमें अंदर जाने दो।’’

मगर जय-विजय नामक द्वारपालों ने सनत-सनकादि को अंदर नहीं जाने दिया। इससे ऋषियों को क्रोध आ गया कि इन द्वारपालों को इतनी भी समझ नहीं कि ऋषियों-साधुओं के साथ कैसा व्यवहार करना चाहिए। क्रोध में उन्होंने शाप देते हुए कहा, ‘‘तुम दोनों ने देवों के साथ रह कर भी दैत्यों जैसा व्यवहार किया है, इसलिए अगले जन्म में तुम दोनों दैत्य कुल में जन्म लोगे।’’

द्वार पर इस विवाद को सुनकर भगवान विष्णु स्वयं बाहर आ गए और सनत-सनकादि को आदर से अंदर जाने को कहा। उधर जय-विजय को दुखी देख भगवान विष्णु ने कारण पूछा तो उन्होंने अपने शाप की बात बताई।

यह सुनकर भगवान विष्णु ने कहा, ‘‘उद्दंडता का फल तो भोगना ही पड़ेगा। असुर कुल में तुम्हारा अगला जन्म अवश्य होगा। इतनी चिंता मत करो। मेरे पार्षद हो, इसलिए इसका पुण्य भी मिलेगा। मेरे द्वारा ही तुम्हें दैत्य-योनि से मुक्ति मिलेगी।’’

सनत-सनकादि भगवान के दर्शन कर चले गए। जय-विजय की मृत्यु होने पर उनका जन्म कश्यप ऋषि की पत्नी दिति के गर्भ से हुआ। दिति दैत्य कुलों की माता थीं, अत: इसके गर्भ से जन्म लेने वाले जय-विजय का नाम इस जन्म में हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु हुआ।

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इन दोनों में प्रबल आसुरी शक्ति थी, उन्होंने अपने उत्पात द्वारा आसुरी शक्ति के बल पर आसुरी राज्य स्थापित किया। इन्होंने देवलोक पर आक्रमण कर देवताओं को भी त्रस्त कर रखा था। इन्होंने घोषणा की कि अब से उनके राज्य के सारे यज्ञ इनके नाम पर होंगे। देवों को कोई यज्ञ भाग नहीं मिलेगा। किसी भी देवी-देवता या ईश्वर की पूजा-आराधना के बजाय हमारी ही पूजा होगी। देवगण कभी यहां पहुंच ही न सकें, इसलिए मैं पृथ्वी को ही पाताल में पहुंचा देता हूं।

यह निश्चय कर हिरण्याक्ष आसुरी शक्ति के बल पर पृथ्वी को रसातल में ले गया। इससे सारे ब्रह्मांड में उथल-पुथल मच गई। सृष्टि का नियम भंग होने लगा। चारों दिशाओं में हाहाकार मच गया। ऋषियों-मुनियों तथा देवताओं ने मिलकर विष्णु से प्रार्थना की, ‘‘भगवान! देखिए इन दो महापराक्रमी असुरों ने क्या किया? देवताओं का यज्ञ-भाग छीना, पूजा-पाठ, धार्मिक कर्म-कांड समाप्त किए और अब तो समस्त भूमंडल को ही रसातल में ले गए। उठिए, कुछ करिए। ब्रह्मा की सृष्टि में बड़ा व्यवधान उपस्थित हो गया है। आप ऋषियों, मुनियों तथा मानवों के रहने का स्थान बनाएं। पृथ्वी जल में डूबी है, उसके उद्धार के लिए बैकुंठ का वास छोड़ कर कोई अवतार लीजिए।’’

भगवान विष्णु ने देवताओं तथा ऋषियों की प्रार्थना सुन उन्हें आश्वासन दिया, ‘‘जब पृथ्वी पर पाप का भार ज्यादा हो जाता है तो उसके उद्धार के लिए मुझे अवतार लेना ही पड़ता है। आप लोग निश्चित होकर जाएं। मैं कुछ करता हूं।’’

देवताओं के चले जाने पर भगवान विष्णु ने नीचे देखा। पृथ्वी का कहीं पता नहीं, सर्वत्र जल-ही-जल दिख रहा था। फिर तो भगवान विशाल वाराह के रूप में प्रकट हुए और समुद्र में कूद पड़े, भयंकर गर्जना के साथ अपनी विशाल डाढ़ पर पृथ्वी को रखकर वे अथाह जलराशि को चीरते हुए ऊपर आ गए।

पृथ्वी को समुद्र से ऊपर आते देख तथा वाराह का भयंकर शब्द सुनकर हिरण्याक्ष बौखला गया कि किसने उसकी शक्ति को चुनौती दी है। वाराह को देखते ही वह उसे मारने को दौड़ा। उसका हर अस्त्र-शस्त्र वाराह के शरीर से टकराकर चूर-चूर हो जाता था। भगवान कुछ देर उसके प्रहार झेलते रहे और उसके क्रोध को भड़काते रहे। रूप भले ही वाराह का था, पर थे तो वह परब्रह्म अनंत शक्ति भगवान विष्णु। 

उन्होंने एक झटके में हिरण्याक्ष को अपनी डाढ़ पर उठा लिया और घुमाकर आकाश में दूर फैंक दिया। आकाश में चक्कर काट कर वह धड़ाम से पृथ्वी पर वाराह के पास ही गिर पड़ा। मरणासन्न हिरण्याक्ष ने देखा कि वह वाराह अब वाराह न होकर भगवान विष्णु हैं। उसे अपना पूर्व जन्म याद हो आया।

उसने भगवान के चरण पकड़ लिए और कहा, ‘‘भगवान पाप के शाप का आपने अंत कर दिया और अपने ही हाथों इस जन्म में मुक्ति दिलाई। मुझे तो मुक्ति मिली, पर मेरे भाई हिरण्यकशिपु का क्या होगा? उसे भी तो मुक्ति दीजिए।’’

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भगवान विष्णु हंसे, ‘‘समय से पूर्व किसी के पाप का अंत नहीं होता। तुम्हारे भाई हिरण्यकशिपु के पाप का अभी अंत नहीं है। तुम्हारे अंत के लिए पृथ्वी कारण बनी। उसके अंत के लिए उसका ईश्वर-भक्त पुत्र कारण बनेगा और उसके उद्धार के लिए मुझे एक और अवतार लेना पड़ेगा। तुम्हारे लिए वाराह बनना पड़ा, उसके लिए नृसिंह रूप में अवतार लेकर उसका उद्धार करना पड़ेगा।’’

भगवान विष्णु के ये शब्द सुनकर हिरण्याक्ष ने बड़ी शांति से अपने प्राण त्याग दिए। 
(वाराह पुराण से)
(‘राजा पॉकेट बुक्स’ द्वारा प्रकाशित ‘पुराणों की कथाएं’ से साभार)

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