नेपाल में तख्तापलट के पीछे भी अमेरिका का हाथ: वॉशिंगटन ने लिखी GenZ स्क्रिप्ट, सुशीला कार्की की नियुक्ति भी गेम का हिस्सा !

Edited By Updated: 16 Sep, 2025 06:57 PM

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नेपाल इन दिनों बड़े राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री केपी ओली को अचानक पद से इस्तीफा देना पड़ा और सेना के समर्थन से सुशीला कार्की की अंतरिम सरकार बनी।

International Desk: नेपाल इन दिनों बड़े राजनीतिक संकट से गुजर रहा है। प्रधानमंत्री केपी ओली को अचानक पद से इस्तीफा देना पड़ा और सेना के समर्थन से सुशीला कार्की की अंतरिम सरकार बनी। इस तेज घटनाक्रम ने शक पैदा किया है कि कहीं इसके पीछे अमेरिका की गुप्त भूमिका तो नहीं। नेपाल में अतीत में भी अमेरिका पर हस्तक्षेप के आरोप लगते रहे हैं। नेपाल के इतिहास और ताज़ा घटनाओं को देखकर कई राजनीतिक गलियारों में चर्चा हैं कि सत्ता परिवर्तन की GenZ स्क्रिप्ट वॉशिंगटन ने ही लिखी।

 
दो दिन में पलट गई गेम
नेपाल  के प्रधानमंत्री केपी ओली को ज़बरदस्त विरोध प्रदर्शनों के बीच केवल दो दिन में पद छोड़ना पड़ा। यह प्रदर्शन सरकार द्वारा लोकप्रिय सोशल मीडिया प्लेटफ़ॉर्म्स पर प्रतिबंध लगाने के बाद भड़के और देखते-ही-देखते हिंसक हो गए। इस बवाल में 70 लोगों की मौत हो गई और हजारों लोग घायल हुए हैं। यह आंदोलन मुख्य रूप से नेपाल के  Gen Z  (18 से 28 वर्ष) युवाओं ने चलाया। उनका आरोप था कि ओली सरकार ने "अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता" का गला घोंट दिया है और सेना का इस्तेमाल नागरिकों के खिलाफ किया जा रहा है। गुस्सा काठमांडू से फैलकर बड़े शहरों तक पहुंचा और हालात बेकाबू हो गए।

 

CIA का पुराना पैटर्न?
भारतीय सेना के सेवानिवृत्त अधिकारी  मेजर जनरल जीडी बख्शी  का मानना है कि ओली सरकार का अचानक गिरना केवल आंतरिक विरोध का नतीजा नहीं हो सकता। उनका तर्क है कि नेपाल में पहले भी  CIA की छाप दिख चुकी है। एक्सपर्टस का  मानना है कि शीत युद्ध के दौरान अमेरिका ने नेपाल को चीन के खिलाफ अपने गुप्त अभियानों का हिस्सा बनाया। खुफिया जानकारी इकट्ठा करना, दुष्प्रचार फैलाना और अर्धसैनिक गतिविधियां चलाना-ये सब अमेरिका की रणनीति का हिस्सा थे। 1971 में निक्सन सरकार के गुप्त दस्तावेजों से इस बात का खुलासा हुआ था। 1960 के दशक में अमेरिका ने नेपाल में बसे तिब्बती शरणार्थियों को हथियार और ट्रेनिंग दी। इससे मस्टैंग गुरिल्ला बल बना, जो चीन विरोधी गतिविधियों में लगा रहा। लेकिन जब अमेरिका और चीन के रिश्ते सुधरे, तो अमेरिका ने इस बल का साथ छोड़ दिया। नतीजा यह हुआ कि नेपाल को कूटनीतिक परेशानियां झेलनी पड़ीं।
 

9/11 के बाद बढ़ा अमेरिकी प्रभाव
2001 में अमेरिका पर हमले के बाद उसने "आतंकवाद के खिलाफ युद्ध" के नाम पर नेपाल में अपनी मौजूदगी बढ़ाई। माओवादी विद्रोहियों को आतंकवादी घोषित किया गया और नेपाल को हजारों M-16 राइफलें और सैन्य मदद दी गई। अमेरिकी दूतावास में रक्षा सहयोग दफ्तर भी खोला गया। 2005 तक अमेरिकी सहयोग से नेपाली सेना का आकार लगभग दोगुना हो गया था। बख्शी का कहना है कि यह आंदोलन भी उसी “प्ले-बुक” का हिस्सा है कि पहले जनता को भड़काना, फिर सरकार को कमजोर करना और अंत में सत्ता परिवर्तन।

 

सुशीला कार्की की नियुक्ति पर सवाल
ओली के इस्तीफ़े के बाद सेना ने  पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की  का समर्थन किया और उन्हें अंतरिम प्रधानमंत्री बनाया गया। किसी राजनीतिक नेता की जगह जज को प्रधानमंत्री बनाने के फैसले ने इस शक को और गहरा कर दिया कि शायद इस सत्ता परिवर्तन पर विदेशी दबाव  काम कर रहा है।अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं कि CIA ने सीधे इस साजिश को अंजाम दिया। लेकिन नेपाल का इतिहास, Gen Z आंदोलन की ताकत और ओली सरकार का अचानक पतन ये सब संकेत देते हैं कि कहीं न कहीं वॉशिंगटन की परछाई  ज़रूर मौजूद है। जैसा कि एक नेपाली पत्रकार ने कहा-“काठमांडू में अमेरिका कभी खुलकर सामने नहीं आता, वह हमेशा परछाइयों में खेलता है।” 

 

क्यों दिलचस्पी रखता है अमेरिका?
विशेषज्ञ मानते हैं कि अमेरिका हमेशा नेपाल को चीन के खिलाफ “रणनीतिक बफ़र ज़ोन” मानता रहा है। ऐसे में वह उन सरकारों को निशाना बनाता है जो उसकी नीतियों के अनुकूल नहीं होतीं। यही पैटर्न हाल ही में  बांग्लादेश  में भी देखने को मिला, जहां शेख हसीना के पतन के पीछे अमेरिका की “मौन सहमति” की चर्चा हुई।आने वाले दिनों में यह साफ होगा कि यह सिर्फ संयोग था या अमेरिका की पुरानी शैली की वापसी।  दरअसल बांगलादेश में भी शेख हसीना के पतन और नई सत्ता व्यवस्था को लेकर यही चर्चा जोरों थी कि सब किया धरा अमेरिका का है। कई विश्लेषक मानते हैं कि हसीना के जाने के बाद बनी नई सत्ता व्यवस्था को अमेरिका की मौन सहमति मिली थी।
  

ओली सरकार का पतन और उठते सवाल
ओली सरकार का अचानक गिरना इस संदेह को और मजबूत करता है कि इसमें बाहरी ताकतों का हाथ है। खास बात यह रही कि इस आंदोलन में कोई बड़ा नेपाली नेता सामने नहीं आया। कई पत्रकारों और अधिकारियों का मानना है कि इतना बड़ा बदलाव बिना गुप्त विदेशी समर्थन के संभव नहीं था।अभी तक कोई ठोस सबूत नहीं मिले हैं।  

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