धार्मिक सुधार से शुरू हुआ ‘कूका आंदोलन’ बना स्वतंत्रता संग्राम में मददगार

Edited By Updated: 24 Sep, 2019 12:40 PM

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स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई छोटे-बड़े आन्दोलन हुए। इनका देश की आज़ादी में महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। उन्हीं में से कुछ आंदोलन ऐसे भी हुए जो धार्मिक या एक विशेष समुदाय के लिए आरम्भ किये गए, लेकिन बाद में वे किन्हीं कारणों से ब्रिटिश साम्राज्य...

Kuka Movement In Hindi :  स्वतंत्रता संग्राम के दौरान कई छोटे-बड़े आन्दोलन हुए। इनका देश की आज़ादी में महत्वपूर्ण योगदान माना जाता है। उन्हीं में से कुछ आंदोलन ऐसे भी हुए जो धार्मिक या एक विशेष समुदाय के लिए आरम्भ किये गए, लेकिन बाद में वे किन्हीं कारणों से ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ हो गए। ऐसे आंदोलन भी जंग-ए-आज़ादी के दौरान अंग्रेजों को नाको चने चबवाए। उन्हीं में से एक नाम ‘कूका आंदोलन’ का आता है। जो सिख समुदाय का अंग्रेजों के खिलाफ एक बड़ा आंदोलन माना जाता है। जिसके लिए कई लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। 

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कूका आंदोलन का मकसद था सामाजिक सुधार

कूका आंदोलन की शुरूआत पंजाब से हुई। जिसकी नींव भगत जवारमल ने रखी थी। इनको सियान साहिब के नाम से भी जाना जाता है। इसका उद्देश्य सिख धर्म में सुधार व उसकी शुद्धता को बनाए रखना था। उन्होंने हाजरो नामक स्थान को अपना मुख्यालय बनाया। कहा जाता है कि इस आंदोलन को जवारमल ने अपने शिष्य बालक सिंह के साथ आरम्भ किया, लेकिन बाबा राम सिंह ने इतिहास के पन्नों में उसे अमर करा दिया। 

दरअसल, जवारमल के बाद उनकी इस मुहीम का मुख्य संचालन राम सिंह के हाथों में आ गया। राम सिंह का जन्म 1815 ई० में लुधियाना से 7 किलोमीटर दूर एक छोटे से गांव भैणी में हुआ। उनके पिता बढ़ई का कार्य करते थे। गरीब परिवार में जन्मे राम सिंह की ज़िन्दगी काफी संघर्षों से भरी रही। 1840 ई० में राजा नौनिहाल सिंह की सेना में एक सैनिक के रूप में अपनी सेवाएं दी। उसी दौरान उनकी मुलाक़ात बाबा बालक सिंह से हुई। इनके द्वारा वे भगत जवाहरमल के संपर्क में आए। इनसे प्रभावित होकर सेना की नौकरी छोड़ दी और सिखों के बीच जन्मी बुरी चीजों के खिलाफ प्रचार करना शुरू कर दिया। इनका मकसद था कि भटके हुए लोग गुरु गोविंद सिंह के उपदेशों का पालन करें। 

वे प्रचलित बुराइयों व अंधविश्वासों को दूर करके धर्म को शुद्ध बनाना चाहते थे। इसके अलावा जातीय भेदभाव को समाप्त करना, सिखों को समानता का अधिकार, मांस, शराब व दूसरे नशीले पदार्थों के सेवन से परहेज़, अंतर-जातीय विवाहों को प्रोत्साहन व महिलाओं को समानता का अधिकार आदि को अपने कूका आंदोलन में शामिल किया। वे बाल विवाह के खिलाफ थे। उन्होंने शिशु हत्या व दहेज़ प्रथा की निंदा की। इनके इन नेक उद्देश्यों को देखते हुए एक बड़ा जनसमूह इस आंदोलन से जुड़ गया था।

इतिहासकारों की मानें तो 1857 में बाबा राम सिंह ने अपने गांव भैणी में नामधारी संप्रदाय को गठित किया। उन्होंने देश- विदेश के विभिन्न क्षेत्रों में 22 उपदेश केन्द्रों की स्थापना की। जिनमें ग्वालियर, लखनऊ, आदि नाम शामिल हैं। इन केन्द्रों के माध्यम से बाबा राम सिंह सामाजिक व धार्मिक शिक्षाओं का प्रचार प्रसार जोर शोर से करने लगे थे। 

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कूका आंदोलन बना स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा 

नामधारी संप्रदाय से आने वाले सिखों को कूका के नाम से भी जाना जाता है। इनको केवल सफ़ेद कपड़े के अलावा किसी अन्य रंगों के वस्त्र धारण करने की अनुमति नहीं थी। इसके अलावा इनको नल के पानी पीने की भी इज़ाज़त नहीं थी, बल्कि झील या कुएं से पानी निकालकर पीने का आदेश था। 

बहरहाल, देखते ही देखते 1860 के आसपास यह आंदोलन राजनीतिक रूप लेना शुरू हो गया था। लोगों पर इसका इतना गहरा असर हुआ कि यह आंदोलन सिख समुदाय के अलावा अन्य धर्मों के लोगों को भी अपनी ओर आकर्षित करने लगा। लाखों की तादाद में अनुयायियों की संख्या बढ़ी।

बाबा राम सिंह राजनीतिक स्वतंत्रता को धर्म का एक हिस्सा मानते थे। नामधारियों के संगठन ने बहिष्कार व असहयोग के सिद्धांत को अपनाया। जैसे कि ब्रिटिशों की शिक्षा संस्थाओं का बहिष्कार, उनके द्वारा बनाए गए कानूनों का बहिष्कार, कपड़ों के मामले में सख्त रुख उन्होंने स्वदेशी हाथ से बना सूती सफ़ेद रंग के वस्त्रों को धारण किया।  

अब यह आंदोलन अंग्रेजों के विरुद्ध हो गया था। जिसका उद्देश्य समाज में फैली कुरीतियों के साथ- साथ ब्रिटिश नीतियों के खिलाफ हो गया। यह संगठन अंग्रेजों को खदेड़ने के लिए बहुत ही सक्रिय रूप ले लिया था। 

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फिर हो गए गाय के लिए कुर्बान
आगे जब अंग्रेजों ने धार्मिक आस्था को चोट पहुँचाने के लिए पंजाब में जगह-जगह बूचड़खाने खुलवाए, तो संगठन के लगभग 100 सदस्यों ने 15 जून 1871 ई० को अमृतसर व 15 जुलाई 1871 ई० को रायकोट के बूचड़खाने पर धावा बोल दिया। उन्होंने वहां से गायों को छुड़वाया। इसके लिए ब्रिटिश हुकूमत ने रायकोट में तीन, अमृतसर में चार, व लुधियाना में दो नामधारी सिखों को सरेआम फांसी के फंदे पर लटका दिया था।

1872 में नामधारियों ने मलेरकोटला पर धावा बोला। इस हमले के दौरान 10 लोग शहीद हो गए थे। कूकसों की हुंकार से ब्रिटिश हुकूमत दहल चुकी थी वे उनके नज़रों में चुभने लगे थे। इस हमले के बाद उन्होंने मलेरकोटला के परेड ग्राउंड में लगभग 60 से 65 सिखों को तोप से उड़ाकर शहीद कर दिया। इनमें एक 12 साल का बच्चा बिशन सिंह का भी नाम शामिल है। इसके अलावा चार नामधारी सिखों को काले पानी की सजा दे दी गई। 

कूका आंदोलन के राजनीतिक स्वरुप धारण करने से ब्रिटिश चिंतित हो गए थे। इसको दबाने के लिए उन्होंने 1872 में आंदोलन के प्रमुख नेता बाबा राम सिंह को कैद कर लिया। इसके बाद उन्हें रंगून भेज दिया गया। जहाँ 1885 में उनकी मृत्यु हो गई। राम सिंह के गुजरने के बाद बाबा हरि सिंह ने इस संगठन की कमान सभांली। अंग्रेजों ने इनसे तंग आकर इनको 21 साल तक गांव में नज़रबंद रखा। 1906 में इनकी मृत्यु के बाद प्रताप सिंह को उत्तराधिकारी बना दिया गया। 1914 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ब्रिटिश सरकार ने भूमि अनुदान के द्वारा कूकों को खुश करने का असफल प्रयास किया। 1920 में संगठन ने अपना अख़बार ‘सतयुग’ के नाम से निकाला। 1922 में दैनिक समाचार पत्र ‘कूका’ शुरू किया गया। 

आगे जब गाँधी जी असहयोग आंदोलन की शुरूआत की तो नामधारी सिखों ने उनका समर्थन किया। कहा जाता है कि गाँधी जी खुद इनसे इसके लिए कुछ बिंदुओं पर विचार विमर्श किया था। जिसके बाद उन्होंने भारत के सामाजिक व राजनीतिक ढांचे में क्रांति लाने के लिए अपने अभियान को संशोधित किया था। इस तरह नामधारी सिखों ने कूका आंदोलन के तहत जंग-ए-आज़ादी में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। जो आज भी करोड़ों भारतवासियों के दिलों में जगह बनाए हुए हैं।

 

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