जगन्नाथ रथयात्रा की रस्सियों का क्या है महत्व? जानिए क्यों मानी जाती हैं ये इतनी पवित्र

Edited By Updated: 28 Jun, 2025 03:09 PM

what is the significance of the ropes of jagannath rath yatra

पुरी में भगवान जगन्नाथ की दिव्य रथयात्रा निकाली जा रही है। हर साल की तरह इस बार भी लाखों श्रद्धालु इस ऐतिहासिक और धार्मिक उत्सव में शामिल हो रहे हैं। भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा तीन अलग-अलग रथों में विराजमान होकर देवी गुंडिचा...

नेशनल डेस्क : पुरी में भगवान जगन्नाथ की दिव्य रथयात्रा निकाली जा रही है। हर साल की तरह इस बार भी लाखों श्रद्धालु इस ऐतिहासिक और धार्मिक उत्सव में शामिल हो रहे हैं। भगवान जगन्नाथ, उनके बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा तीन अलग-अलग रथों में विराजमान होकर देवी गुंडिचा के मंदिर की ओर प्रस्थान करते हैं। यह रथयात्रा केवल एक धार्मिक उत्सव नहीं, बल्कि भारत की सांस्कृतिक एकता और आस्था का प्रतीक है। जाति, धर्म, वर्ग और भाषा की सीमाएं इस पर्व में समाप्त हो जाती हैं और हर कोई भगवान के दर्शन और रथ खींचने की लालसा में शामिल होता है।

रस्सियां, जो रथ जितनी ही पवित्र हैं

रथ को खींचने के लिए श्रद्धालु उमड़ते हैं। लेकिन खास बात ये है कि सिर्फ रथ ही नहीं, उन्हें खींचने वाली रस्सियों का भी उतना ही धार्मिक और पौराणिक महत्व है। इन रस्सियों को छूना भी भगवान को छूने जैसा माना जाता है। हर रथ की रस्सी का एक विशेष नाम है और हर नाम के पीछे एक पौराणिक कथा जुड़ी है।

भगवान जगन्नाथ की रथ रस्सी का नाम: शंखचूड़

भगवान जगन्नाथ के रथ को खींचने वाली रस्सी का नाम 'शंखचूड़  है। इसके पीछे एक प्राचीन कथा है – एक राक्षस शंखचूड़ ने भगवान जगन्नाथ को अधूरी मूर्ति समझकर उनका अपहरण करना चाहा, लेकिन भगवान बलभद्र ने उसे मार गिराया। मरते समय शंखचूड़ ने भगवान से प्रार्थना की कि वह भी उनकी सेवा करना चाहता है। तब बलराम जी ने उसकी नाड़ी और रीढ़ से रस्सी बनाई, जो आज भगवान के रथ को खींचने में प्रयोग होती है। यह रस्सी अब मोक्ष और भगवान की सेवा का प्रतीक बन चुकी है। इसे छूना या खींचना भगवान से जुड़ने जैसा अनुभव होता है।

भगवान बलभद्र की रथ रस्सी का नाम: वासुकि

भगवान बलभद्र के रथ की रस्सी का नाम 'वासुकि' है। यह वही वासुकि नाग हैं जो भगवान शिव के गले में शोभित होते हैं। पौराणिक मान्यता है कि वासुकि, शेषनाग से सेवा करने का अवसर मांगते थे। शेषनाग ने उन्हें वचन दिया कि जब वे बलराम के रूप में पृथ्वी पर आएंगे, तब वासुकि को उनकी सेवा का अवसर मिलेगा। यही कारण है कि बलभद्र के रथ की रस्सी वासुकि कहलाती है।
श्रद्धालु मानते हैं कि इस रस्सी को खींचने से भाईचारे, समर्पण और सेवा भाव की प्राप्ति होती है।

देवी सुभद्रा की रथ रस्सी का नाम: स्वर्णचूड़

देवी सुभद्रा के रथ की रस्सी को 'स्वर्णचूड़' कहा जाता है। यह रस्सी माया और मोह के बंधन का प्रतीक मानी जाती है। मनुष्य जीवन में जो कर्म, संबंध और भौतिक इच्छाओं के बंधन होते हैं, इस रस्सी के माध्यम से वे दर्शाए जाते हैं। जब श्रद्धालु इस रस्सी को खींचते हैं, तो यह आत्मा के परमात्मा से मिलन की ओर संकेत करता है — मुक्ति और अध्यात्म की ओर बढ़ता कदम।

कालसर्प दोष से मुक्ति का उपाय भी बनती है रस्सी

ज्योतिष के अनुसार, जन्म कुंडली में जब सभी ग्रह राहु और केतु के बीच आ जाते हैं तो शंखचूर्ण कालसर्प दोष बनता है, जो जीवन में परेशानियां लाता है। मान्यता है कि रथयात्रा की रस्सी को श्रद्धा से छूने या खींचने से इस दोष से मुक्ति मिल सकती है।

रथ यात्रा: आस्था और एकता का उत्सव

रथ यात्रा के पहले दिन भगवान बलभद्र का रथ लगभग 200 मीटर खींचा गया। सूर्यास्त के बाद रथ खींचने की परंपरा नहीं है, इसलिए यात्रा अगले दिन यानी शनिवार को फिर से शुरू की गई। श्रद्धालुओं की यही कोशिश रहती है कि उन्हें बस एक बार रथ की रस्सी छूने का अवसर मिल जाए। उनके लिए यही भक्ति, पुण्य और भगवान से सीधा जुड़ाव होता है।

 

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