Guru Purnima Special: गुरु कहे सहज सुभाय, गुरु का कहा बिरथा न जाए

Edited By Jyoti,Updated: 12 Jul, 2022 04:19 PM

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Guru Purnima Special: यह बात तब की है जब रियासतें और राजा-महाराजा हुआ करते थे जो छोटी-छोटी रियासतों को बल से अपने अधीन करके राज्य का विस्तार करने में लगे रहते थे। पहले तो राजा अपने दूत भेजकर उसे समझाते।

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Guru Purnima Special:
यह बात तब की है जब रियासतें और राजा-महाराजा हुआ करते थे जो छोटी-छोटी रियासतों को बल से अपने अधीन करके राज्य का विस्तार करने में लगे रहते थे। पहले तो राजा अपने दूत भेजकर उसे समझाते। अगर वह मान जाता तो उसे कोई बड़ा पद देकर उसके राज्य को अपने अधीन कर लेते और अगर वह अधीनता स्वीकार करने से इंकार करता तो उस राज्य पर आक्रमण करके उस राजा को बंदी बना लिया जाता या फांसी दे दी जाती।
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ऐसी ही एक कथा है मगध देश के राजा वेदप्रताप की जिसने अपने पड़ोसी राज्य को अपने अधीन करने की सोची। पहले तो राजा वेदप्रताप ने हर क्षेत्र में कुशल एवं वाकपटुता में माहिर अपने विशेष मंत्री चंद्रभान को दूत बनाकर भेजा जिन्होंने अपनी कुशाग्र बुद्धि से राज्य के न सुलझने वाले कई मसले हल कर दिखाए थे। किसी बड़े कार्य के लिए जाने से पूर्व सर्वप्रथम वह अपने गुरुदेव से आशीर्वाद लेते थे। गुरु आज्ञा में रह कर ही सारे कार्य करना उनकी सफलता का रहस्य था। सुबह उठते ही नहा-धोकर गुरु जी को मिलने आश्रम जा पहुंचे और गुरु जी को शीश नवा कर आने का कारण बताया। उनकी बात सुन कर गुरु जी मौन हो गए, जैसे कि वह समाधि अवस्था में चले गए हों।

फिर ॐ शब्द का उच्चारण करके आंखें खोलीं और चंद्रभान के सिर पर हाथ रखकर  कहा, "जाओ बेटा, आपको सफलता मिलेगी।"

वह राजा आपको कई प्रलोभन देगा पर आप मेरे शिष्य हैं, अपने राजा से कृतघ्नता नहीं करना। आपको कोई अपनी ही अनमोल वस्तु मिलेगी। गुरुदेव से आज्ञा लेकर चंद्रभान राज दरबार में पहुंचे। वहां पर चार घोड़ों वाली बग्घी पहले ही तैयार थी जिसमें पड़ोसी राजा के लिए उपहार रखे हुए थे। लम्बे सफर के बाद वह पड़ोसी राजा जतिन देव के महल के बाहर पहुंचे। महल के बाहर खड़े प्रहरी को चंद्रभान के घुड़सवार ने राजा वेद प्रताप का संदेश दिया तो कुछ ही देर में राजा जतिन देव के मंत्री उन्हें लेने आ गए। जब वह महाराज जतिन देव से मिलने गए तो सभी ने उनका खड़े होकर अभिवादन किया और बैठने की जगह बताई तो चंद्रभान ने अपने राजा वेद प्रताप का फरमान विस्तार और बड़े ही सुंदर तरीके से समझा कर कहा कि, आपके राज्य की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है जिस कारण जनता विद्रोह पर उतर सकती है इसलिए आप अपना राज्य हमारे अधीन कर देंगे तो आपको बड़ा पद दिया जाएगा और जनता भी खुशहाल हो जाएगी।

राजा जतिन देव तथा उनके मंत्रियों ने चंद्रभान जी की बातें ध्यान से सुनीं और फिर जतिन देव जी बोले, "मंत्री महोदय, आप हमारे अतिथि हैं और अतिथि देवता के समान होता है। आप हमारी विनती स्वीकार कर हमें दो दिन सेवा करने और आपके महाराज के भेजे संदेश पर विचार करने का समय दें।"
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इधर राजा जतिन देव के मंत्रियों ने आपस में बैठकर विचार किया कि चंद्रभान की दो दिन खास सेवा की जाए क्योंकि हमारे राज्य का भविष्य चंद्रभान पर ही निर्भर है। चंद्रभान को कमरे में आते-आते रात हो चली थी। कमरे में आते ही अंदर का दृश्य देख कर उनकी आंखों में कई प्रकार के प्रश्नचिन्ह उभर आए। मेज पर कई प्रकार की मदिरा और खाने का सामान रखा हुआ था। चंद्रभान को समझने में देर न लगी कि उन्हें जतिन देव के पक्ष में करने के लिए यह प्रबंध किया गया है पर वह मदिरा का सेवन तो करते ही नहीं थे। वह सोच ही रहे थे कि सेवादार को बुलाकर यह समान उठवा दिया जाए कि तभी किसी के कमरे के अंदर आने की आहट हुई। कमरे में एक सुंदर युवती ने बहुत ही कामुक अंदाज में चलते हुए प्रवेश किया और चंद्रभान के पास आकर बोली, इस दासी का सलाम कबूल करें।

चंद्रभान को समझने में पल भर न लगा और वह बोले, तुम मेरी बेटी समान हो, जिन्होंने तुम्हें यहां भेजा है उनसे जा कर कहो कि मैं मंत्री जरूर हूं पर मैं अपने चरित्र को अधिमान देता हूं। इन व्यसनों से कोसों दूर हूं। अपने लिए बेटी का सम्बोधन सुन वह युवती रोने लगी तो चंद्रभान उसके सिर पर हाथ रखते हुए बोले, बेटी क्या हुआ?

मैंने तो आपको कुछ कहा नहीं, फिर रोने की क्या बात है?

आंसू पोंछती हुई युवती बोली, मुझे आज तक किसी ने बेटी कहा ही नहीं। जब भी मुझे किसी की सेवा के लिए भेजा जाता है तो मुझे नोचने के सिवा किसी ने और कुछ किया ही नहीं। चंद्रभान ने पूछा, ऐसी भी क्या मजबूरी जो तुम्हें इस कुकृत्य के लिए मजबूर होना पड़ा?

युवती बोली, मैं चार-पांच वर्ष की थी जब हमारे घर में डाकुओं ने हमला बोला। घर को लूट कर मुझे डाकू अपने साथ उठा लाए। उन्होंने मुझे वेश्यालय में बेच दिया। मुझे जब भी समय मिलता है मैं उस ईश्वर से आराधना के साथ यह भी विनती करती हूं कि हे भगवान जिन्होंने मुझे जन्म दिया वे मुझे कभी मिलेंगे या नहीं!
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चंद्रभान के मस्तिष्क में कई सवाल उभरे। उन्होंने उस युवती से पूछा, जिस घर में तुम्हारा जन्म हुआ क्या तुम्हें उस गांव या शहर का नाम पता है?

युवती बोली,जी पूरा तो याद नहीं पर इतना जरूर याद है कि सारे गांव में हमारा घर बहुत बड़ा था। मेरे दो भाई भी थे जो मुझसे बड़े थे। मैं दादी की लाडली थी। जब डाकू आए तब मैं दादी की गोद में ही बैठी हुई थी। जब डाकू मुझे उठाने लगे तो मेरी दादी ने मुझे कस कर पकड़ लिया और डाकुओं का विरोध किया तो एक डाकू ने दादी को कटार मार दी और मुझे उठा कर ले गए।

चंद्रभान जी गिरते-गिरते बचे। खुद को सम्भाल कर मीनू-मीनू कहते हुए उसे गले से लगा कर रोने लगे। युवती हैरान थी कि इनको मेरे बचपन का नाम कैसे पता है! चंद्रभान बोले, मीनू, मैं ही तुम्हारा अभागा पिता हूं। दोनों बाप-बेटी खूब रोए। चंद्रभान जी को गुरुदेव की बात स्मरण हो आई। उन्होंने कहा था कि, "आपको कोई अपनी ही अनमोल वस्तु मिलेगी।"

सुबह हुई तो चंद्रभान जी ने राजा जतिन देव से मुलाकात की और सारी बात बताई। जतिन देव बहुत शर्मसार हुए।
उन्होंने चंद्रभान जी को सहमति का पत्र देते हुए कहा कि इसे महाराजा वेद प्रताप जी को दे दीजिएगा और कहिएगा कि मैंने अपने राज्य को उनके राज्य में मिलाने की स्वीकृति दे दी है। चंद्रभान ने सबसे विदा ली और बेटी को लेकर अपने राज्य पहुंचे।  —उदय चंद्र लुदरा

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