Kundli Tv- एक Click में पाएं छठ पूजा से संबंधित हर जानकारी

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 12 Nov, 2018 10:37 AM

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दिवाली से छ: दिन बाद मनाए जाने वाले छठ पर्व का भारतीय संस्कृति में व्यापक महत्व है।

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दिवाली से छ: दिन बाद मनाए जाने वाले छठ पर्व का भारतीय संस्कृति में व्यापक महत्व है। इस पर्व को हमारे देश में मनाने की परम्परा सदियों से चली आ रही है। सूर्य-उपासना का यह पर्व बिहार, उत्तर प्रदेश, उत्तरांचल व कई पूर्वोत्तर राज्यों में उत्साह पूर्वक मनाया जाता है। हमारे यहां मान्यता है कि सूर्यदेव की शक्तियों का मुख्य स्रोत उनकी पत्नियां ऊषा और प्रत्यूषा हैं। छठ में सूर्यदेव के साथ उनकी दोनों पत्नियों की संयुक्त रूप से आराधना की जाती है। प्रात:काल में सूर्य की पहली किरण यानि ऊषा और संध्याकाल में सूर्य की अंतिम किरण यानि प्रत्यूषा को अर्घ्य देकर दोनों को नमन किया जाता है।
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छठ पूजा के नियम : भगवान श्री सूर्य नारायण की आराधना से व्रत रखने वाला सुख-शांति, समृद्धि व इच्छित फल की कामना करते हुए इस पर्व को श्रद्धा एवं पवित्रता से पूरे 36 घंटे निर्जला रहते हुए, समीप के जलाशय या नदी के किनारे जल में षष्ठी तिथि को नहाकर उसी जल में खड़े होकर सायंकाल के समय अस्ताचलगामी सूर्यदेव को तथा दोबारा सप्तमी तिथि को व्रती प्रात:काल उसी स्थान पर जल में खड़े होकर उदय हो रहे सूर्यदेव को अर्घ्य देकर पूजा करता है। 

जरूरी है पवित्रता : छठ पूजा में सफाई के साथ पवित्रता का होना भी जरूरी है। यही कारण है कि धुले घर-आंगन को दोबारा से धोकर पवित्र किया जाता है। छत की सफाई का खास ध्यान रखा जाता है क्योंकि छठ में चढ़ाए जाने वाले प्रसाद ‘ठेकुआ’ के लिए गेहूं धोकर वहीं सुखाया जाता है।  ठेकुआ बनाने के लिए आटा बाजार से बिल्कुल भी नहीं खरीदा जाता। जिस रसोई में प्रसाद बनता है वहां बिना स्नान प्रवेश वर्जित होता है। घरों में मिट्टी के चूल्हे बनाकर, सूखी लकड़िया जलाकर पूजा के लिए रखे खास बर्तनों में ठेकुआ बनाया जाता है।
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छठ पूजा का शुभारंभ : छठ पर्व की शुरूआत ‘कद्दू-भात’ या ‘नहाय-खाय’ से होती है। कद्दू-भात यानी लौकी की बिना प्याज-लहसुन की सब्जी और चावल का भोजन व नहाय-खाय यानी गंगा स्नान करके भोजन पकाना व खाना। घरों में कार्तिक मास के शुरू होते ही मांसाहार, प्याज व लहसुन जैसे तामसिक भोजन बंद हो जाते हैं। घर की प्रमुख महिला, जो छठ का व्रत रखती है, के साथ बाकी सभी सदस्य भी घर में यही खाना खाते हैं।

कद्दू-भात के अगले दिन व्रती महिला पूरा दिन व्रत रखती है और संध्याकाल में पूजा करती है। भगवान को भोग लगाने के लिए खीर-पूरी या दाल-चावल साफ-सफाई के कड़े नियमों का पालन करते हुए बनाए जाते हैं। इसके साथ सभी मौसमी फलों का भोग भी लगाया जाता है। पूजा के बाद व्रत रखने वाली महिला इसी भोग-सामग्री से व्रत तोड़ती है जिसे ‘खरना’ कहते हैं। परिवार वाले इस बात का पूरा ध्यान रखते हैं कि व्रत रखने वाली महिला भरपेट भोजन करे ताकि अगले दिन वह निर्जला उपवास रख सके। इस प्रसाद को ग्रहण करना बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। 
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सूर्यास्त के इंतजार में : तीसरा दिन काफी रौनक भरा होता है क्योंकि इस दिन शाम को अस्त होते सूर्य को अर्घ्य देने के लिए नदी या तालाब के पास लोगों की भीड़ उमड़ी रहती है। इस दिन छठ के गीत गाए जाते हैं। सारी पूजा सामग्री को बांस के बने सूपों में सजाकर साफ धुली धोती में बांधकर श्रद्धापूर्वक सिर पर रख कर नंगे पैर घाट तक लेकर जाते हैं। घाट पर सूपों को अस्त होते सूर्य की दिशा क्रम में घी के दीये जलाकर रखते हैं। व्रती महिला नदी में स्नान करती है और पानी में ही रहकर भीगे आंचल को हथेलियों पर रखती है। दूसरा व्यक्ति प्रसाद से सजे सूपों को एक-एक करके व्रती महिला के हाथों में रखता जाता है। सूर्यास्त के बाद सभी घर वापस आ जाते हैं और अर्घ्य दिए सूपों को श्रद्धापूर्वक पूजा घर में रख देते हैं।
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उगते सूर्य को नमस्कार : सूर्योदय से पहले ही लोग उठकर नहाकर नए कपड़े पहन कर घाट पहुंच जाते हैं। सूपों के बीच की सामग्री को बदल दिया जाता है। पुन: से सूपों को घाट पर ले जाकर सजाया जाता है। दीयों  से चारों तरफ रोशनी हो जाती है, खूब पटाखे चलाए जाते हैं। उगते सूर्य को अर्घ्य देने के बाद छठ-पूजा सम्पन्न होती है। व्रती महिला से छोटी आयु के लोग उसके चरण-स्पर्श करके आशीर्वाद लेते हैं।

पूजा की विधि : पूजा के समय शुद्ध घी के दीये जलाए जाते हैं। षष्ठी तिथि शाम को अस्त होते सूर्यदेव को अर्घ्य देने के बाद व्रती महिलाएं अपने घर के आंगन में विशेष अनुष्ठान के तहत ‘कोसी भरना’ कार्यक्रम करती हैं। इसमें चीनी अथवा गुड़ के साथ आटा पकाया ‘ठेकुआ’ मुख्य होता है। इसके साथ ही चावल के आटे में गुड़ मिलाकर बनाई ‘कचवनिया’ जो लड्डू की तरह होती है, के साथ गन्ना, नारियल, अमरूद, केला, सेब या सभी उपलब्ध फलों को लेकर, सात गन्नों को खड़े कर उनका घेरा बनाकर उसके अंदर सारे प्रसाद को रखा जाता है व पूरी रात लोकगीतों के माध्यम से सूर्य भगवान की पूजा की जाती है।
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सूर्य षष्ठी व्रत कथा : एक नि:संतान वृद्धा ने कार्तिक शुक्ल सप्तमी के दिन संकल्प किया कि यदि उसके पुत्र होगा तो वह व्रत रखेगी। सूर्य भगवान की कृपा से वह पुत्रवती हो गई लेकिन उसने व्रत नहीं रखा। उसके बेटे का विवाह हो गया। विवाह से लौटते समय वर-वधू एक जंगल में रुके। वहां वधू ने पालकी में अपने पति को मृत पाया। वह विलाप करने लगी तो एक वृद्धा उसके पास आकर बोली, ‘‘मैं छठ माता हूं, तुम्हारी सास ने संकल्प करके भी मेरा व्रत नहीं रखा लेकिन मैं तुम पर तरस खाकर तुम्हारे पति को जीवित कर देती हूं। तुम घर जाकर इस विषय पर अपनी सास से बात जरूर करना।’’ 

घर पहुंच कर वधू ने जब अपनी सास से बात की तो उसे अपनी भूल का एहसास हुआ। उसने भूल स्वीकार करते हुए सूर्य षष्ठी व्रत करने का संकल्प किया। तभी से इस व्रत का आरंभ हुआ। 
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