Edited By Niyati Bhandari,Updated: 02 Jun, 2023 09:47 AM
श्री कृष्ण ने अर्जुन (3.30) से कहा मुझ अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशा रहित, ममतारहित और ज्वररहित होकर युद्ध कर। यह श्लोक
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Srimad Bhagavad Gita: श्री कृष्ण ने अर्जुन (3.30) से कहा मुझ अंतर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा सम्पूर्ण कर्मों को मुझमें अर्पण करके आशा रहित, ममतारहित और ज्वररहित होकर युद्ध कर। यह श्लोक गीता का सारांश है और यह दैनिक जीवन में हमारे कई संदेहों का निवारण करता है। हमारा पहला संदेह ‘हमें क्या करना चाहिए’ है, जो इसलिए उत्पन्न होता है क्योंकि हम जो कर रहे हैं, उससे खुश नहीं हैं क्योंकि हमें लगता है कि खुशी कहीं किसी अन्य क्रिया में है लेकिन यह श्लोक हमें ‘हाथ में जो काम है उसे करने’ की सलाह देता है, जो हमारे द्वारा चुना गया हो या हम पर थोपा गया हो, लेकिन हमारी सर्वश्रेष्ठ क्षमता के साथ।
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ऐसा कार्य कुरुक्षेत्र युद्ध जितना ही क्रूर और जटिल हो सकता है, जिसमें किसी को मार दिया जाएगा या स्वयं मारा जाएगा। वैज्ञानिक रूप से, हमारा जटिल मानव शरीर एकल कोशिका से विकसित है, जहां प्रत्येक क्रिया (उत्परिवर्तन) पिछली क्रिया से जुड़ी होती है। इसका मतलब हाथ में कोई भी कर्म हमेशा पिछले कर्मों की एक शृंखला का परिणाम होता है और कोई कर्म अकेले नहीं होता।
अगला प्रश्न है, ‘हमें कर्म कैसे करना चाहिए ?’ यह श्लोक हमें अर्जुन द्वारा सामना किए गए तनाव या विषाद से उत्पन्न अहंकार, इच्छाओं और बुखार को छोड़ कर कार्य करने की सलाह देता है। इच्छाओं को छोड़ना हमें दुखों से मुक्त कर देगा क्योंकि दोनों साथ-साथ चलते हैं।
‘हमारे सामने आने वाली बाधाओं को कैसे दूर किया जाए?’ का उत्तर श्री कृष्ण ने सभी कार्यों और बाधाओं को उन पर त्यागने की सलाह देते हुए दिया है। यहां श्री कृष्ण परमात्मा के रूप में आ रहे हैं।
जब हाथ में काम जटिल होता है तो हम ज्ञान, शक्ति और अनुभव के संदर्भ में अतिरिक्त संसाधनों की तलाश उनके पास करते हैं, जिनके पास ये हैं। परम मांग परमात्मा को समर्पण है, खासकर जब समाधान हमारी समझ से परे है। अहंकार कमजोरी और भय का प्रतीक है, जो अपने अस्तित्व के लिए भौतिक संपत्ति और मान्यता की मदद लेता है। जबकि, परमात्मा पर सब कुछ त्यागने के लिए शक्ति और साहस की आवश्यकता होती है।