Edited By Jyoti,Updated: 24 Apr, 2022 11:19 AM
अत: कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरंतर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि
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श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
निरंतर ‘कर्म’ करो
तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचार।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष।।
अनुवाद तथा तात्पर्य : अत: कर्मफल में आसक्त हुए बिना मनुष्य को अपना कर्तव्य समझ कर निरंतर कर्म करते रहना चाहिए क्योंकि अनासक्त होकर कर्म करने से उसे परब्रह्म (परम) की प्राप्ति होती है।
परम भक्तों के लिए श्रीभगवान हैं और निर्विशेष वादियों के लिए मुक्ति है। अत: जो व्यक्ति समुचित पथ प्रदर्शन पाकर और कर्मफल में अनासक्त होकर कृष्ण के लिए या कृष्णभावनामृत में कार्य करता है, वह निश्चित रूप से जीव लक्ष्य की ओर प्रगति करता है।
अर्जुन से कहा जा रहा है कि वह कृष्ण के लिए कुरुक्षेत्र के युद्ध में लड़े क्योंकि कृष्ण की इच्छा है कि वह ऐसा करे। उत्तम व्यक्ति होना या अहिंसक होना व्यक्तिगत आसक्ति है, किंतु फल की आसक्ति से रहित होकर कार्य करना परमात्मा के लिए कार्य करना है। यह उच्चतम कोटि का पूर्ण कर्म है, जिसकी संस्तुति भगवान कृष्ण ने की है। नियत यज्ञ, जैसे वैदिक अनुष्ठान, उन पापकर्मों की शुद्धि के लिए किए जाते हैं जो इंद्रियतृप्ति के उद्देश्य से किए गए हों। किंतु कृष्णभावनामृत में जो कर्म किया जाता है वह अच्छे या बुरे कर्म के फलों से अतीत है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में फल के प्रति लेशमात्र आसक्ति नहीं रहती, वह तो कृष्ण के लिए कार्य करता है। वह समस्त प्रकार के कर्मों में रत रह कर भी पूर्णतया अनासक्त रहता है।