Edited By Prachi Sharma,Updated: 26 Nov, 2023 08:11 AM
विनम्र साधु पुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चांडाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते
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विद्याविनयसम्पन्ने ब्राह्मणे गवि हस्तिनि।
शुनि चैव श्वपाके च पंडिता: समदर्शिनः ॥5.18॥
तात्पर्य: विनम्र साधु पुरुष अपने वास्तविक ज्ञान के कारण एक विद्वान तथा विनीत ब्राह्मण, गाय, हाथी, कुत्ता तथा चांडाल को समान दृष्टि (समभाव) से देखते हैं। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति योनि या जाति में भेद नहीं मानता, चाहे सामाजिक दृष्टि से अथवा योनि के अनुसार भिन्नता हो सकती है। इसका कारण परमेश्वर से उनका संबंध है और परमेश्वर परमात्मा रूप से हर एक के हृदय में स्थित हैं। परमसत्य का ऐसा ज्ञान वास्तविक (यथार्थ) ज्ञान है।
जहां तक विभिन्न जातियों या विभिन्न योनियों में शरीर का संबंध है, भगवान सभी पर समान रूप से दयालु हैं क्योंकि वह प्रत्येक जीव को अपना मित्र मानते हैं, फिर भी जीवों की परिस्थितियों की उपेक्षा करके वह अपना परमात्मा स्वरूप बनाए रखते हैं। परमात्मा रूप में भगवान चांडाल तथा ब्राह्मण दोनों में उपस्थित रहते हैं यद्यपि इन दोनों के शरीर एक से नहीं होते। शरीर तो प्रकृति के गुणों के द्वारा उत्पन्न हुए हैं किन्तु शरीर के भीतर आत्मा तथा परमात्मा समान आध्यात्मिक गुण वाले हैं, परंतु आत्मा तथा परमात्मा की यह समानता उन्हें मात्रात्मक दृष्टि से समान नहीं बनाती क्योंकि व्यष्टि आत्मा किसी विशेष शरीर में उपस्थित होता है, किन्तु परमात्मा प्रत्येक शरीर में है।
कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को इसका पूर्णज्ञान होता है इसीलिए वह सचमुच ही विद्वान तथा समदर्शी होता है। आत्मा तथा परमात्मा के समान लक्षण हैं क्योंकि दोनों चेतन, शाश्वत तथा आनंदमय हैं किन्तु अंतर इतना ही है कि आत्मा शरीर की सीमा के भीतर सचेतन रहता है जबकि परमात्मा सभी शरीरों में सचेतन है। परमात्मा बिना किसी भेदभाव के सभी शरीरों में विद्यमान हैं।