शिव तांडव स्तोत्र क्या है?

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 24 Dec, 2018 03:39 PM

what is shiva tandava

मंत्र व स्तोत्र में बड़ी शक्ति होती है। स्तोत्र में अपने आराध्य की विशेष रूप में स्तुति होती है जो शुभ फल देने वाली मानी जाती है।

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मंत्र व स्तोत्र में बड़ी शक्ति होती है। स्तोत्र में अपने आराध्य की विशेष रूप में स्तुति होती है जो शुभ फल देने वाली मानी जाती है। सभी देवी-देवताओं के विभिन्न मंत्र व स्तोत्र वेदों व पुराणों में बताए गए हैं। ऐसा ही एक स्तोत्र है शिवतांडव स्तोत्र जिसके माध्यम से आप न केवल धन-सम्पति पा सकते हैं बल्कि जीवन में आने वाली सभी बाधाओं को दूर भी किया जा सकता है। शिवतांडव स्तोत्र लंकाधिपति रावण द्वारा रचा गया है, इसकी कठिन शब्दावली और काव्य रचना इसे अन्य स्तोत्रों से अलग बनाती है।
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मान्यता है की रावण ने कैलाश पर्वत ही उठा लिया था और जब पूरे पर्वत को ही लंका ले जाने लगा तो भगवान शिव ने अपने अंगूठे से तनिक सा दबाया तो कैलाश पर्वत पुन: वही स्थापित हो गया। जिससे शिव के अनन्य भक्त रावण का हाथ दब गया और वह पीड़ित हो उठा और भगवान शंकर से क्षमा करें, क्षमा करें बोल स्तुति करने लग गया। जो शिवतांडव स्तोत्र के नाम से प्रसिद्ध हुई। जिसमें 17 श्लोक हैं। भगवान शिव की स्तुति से होने वाले लाभ निम्न है :-
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शिवतांडव स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को धन-सम्पति के साथ-साथ उच्चकोटी के व्यक्तित्व की प्राप्ति होती है।

जीवन में किसी भी सिद्धि की इच्छा हो तो इस स्तोत्र के जाप से आसानी से वह प्राप्त की जा सकती है।

इस स्तोत्र के नियमित पाठ से वाणी सिद्धि की भी प्राप्ति होती है।

नृत्य, चित्रकला, लेखन, योग, ध्यान, समाधी से जुड़े लोगों को शिवतांडव स्तोत्र का पाठ निश्चित लाभप्रद होता है।
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शनि काल है और शिव महाकाल है, अत: शनि से पीड़ित लोगों को इसके पाठ से लाभ मिलता है।

कालसर्प से पीड़ित लोगों को इस स्तोत्र के पाठ से काफी हद तक मुक्ति मिलती है।

शिवतांडव स्तोत्र-
जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले गलेऽवलम्ब्यलम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम्‌।

डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं चकारचण्डताण्डवं तनोतु नः शिवो शिवम्‌ ॥१॥

जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिंपनिर्झरी विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्धनि।

धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके किशोरचंद्रशेखरे रतिः प्रतिक्षणं ममं ॥२॥

धराधरेंद्रनंदिनी विलासबन्धुबन्धुरस्फुरद्दिगंतसंतति प्रमोद मानमानसे।

कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि क्वचिद्विगम्बरे मनोविनोदमेतु वस्तुनि ॥३॥
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जटाभुजंगपिंगलस्फुरत्फणामणिप्रभा कदंबकुंकुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे।

मदांधसिंधुरस्फुरत्वगुत्तरीयमेदुरे मनोविनोदद्भुतं बिंभर्तुभूतभर्तरि ॥४॥

सहस्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर प्रसूनधूलिधोरणी विधूसरांघ्रिपीठभूः।

भुजंगराजमालयानिबद्धजाटजूटकः श्रियैचिरायजायतां चकोरबंधुशेखरः ॥५॥

ललाटचत्वरज्वलद्धनंजयस्फुलिङ्गभा निपीतपंचसायकंनमन्निलिंपनायकम्‌।

सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं महाकपालिसंपदे शिरोजटालमस्तुनः ॥६॥

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वलद्धनंजया धरीकृतप्रचंडपंचसायके।

धराधरेंद्रनंदिनीकुचाग्रचित्रपत्रकप्रकल्पनैकशिल्पिनी त्रिलोचनेरतिर्मम ॥७॥
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नवीनमेघमंडलीनिरुद्धदुर्धरस्फुरत्कुहुनिशीथनीतमः प्रबद्धबद्धकन्धरः।

निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिंधुरः कलानिधानबंधुरः श्रियं जगंद्धुरंधरः ॥८॥

प्रफुल्लनीलपंकजप्रपंचकालिमप्रभा विडंबि कंठकंध रारुचि प्रबंधकंधरम्‌।

स्मरच्छिदं पुरच्छिंद भवच्छिदं मखच्छिदं गजच्छिदांधकच्छिदं तमंतकच्छिदं भजे ॥९॥

अखर्वसर्वमंगला कलाकदम्बमंजरी रसप्रवाह माधुरी विजृंभणा मधुव्रतम्‌।

स्मरांतकं पुरातकं भावंतकं मखांतकं गजांतकांधकांतकं तमंतकांतकं भजे ॥१०॥

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजंगमस्फुरद्धगद्धगद्विनिर्गमत्कराल भाल हव्यवाट्।

धिमिद्धिमिद्धिमिध्वनन्मृदंगतुंगमंगलध्वनिक्रमप्रवर्तित: प्रचण्ड ताण्डवः शिवः ॥११॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजंगमौक्तिकमस्रजोर्गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।

तृणारविंदचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः समं प्रवर्तयन्मनः कदा सदाशिवं भजे ॥१२॥

कदा निलिंपनिर्झरी निकुञ्जकोटरे वसन्‌ विमुक्तदुर्मतिः सदा शिरःस्थमंजलिं वहन्‌।
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विमुक्तलोललोचनो ललामभाललग्नकः शिवेति मंत्रमुच्चरन्‌ कदा सुखी भवाम्यहम्‌ ॥१३॥

निलिम्प नाथनागरी कदम्ब मौलमल्लिका-निगुम्फनिर्भक्षरन्म धूष्णिकामनोहरः।

तनोतु नो मनोमुदं विनोदिनींमहनिशं परिश्रय परं पदं तदंगजत्विषां चयः ॥१४॥

प्रचण्ड वाडवानल प्रभाशुभप्रचारणी महाष्टसिद्धिकामिनी जनावहूत जल्पना

विमुक्त वाम लोचनो विवाहकालिकध्वनिः शिवेति मन्त्रभूषगो जगज्जयाय जायताम्‌ ॥१५॥

इमं हि नित्यमेव मुक्तमुक्तमोत्तम स्तवं पठन्स्मरन्‌ ब्रुवन्नरो विशुद्धमेति संततम्‌।

हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथागतिं विमोहनं हि देहनां सुशंकरस्य चिंतनम् ॥१६॥

पूजाऽवसानसमये दशवक्रत्रगीतं यः शम्भूपूजनपरम् पठति प्रदोषे।

तस्य स्थिरां रथगजेंद्रतुरंगयुक्तां लक्ष्मी सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१७॥
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