जानिए, श्रीकृष्ण ने क्यों कहा दान देना है व्यर्थ ?

Edited By Updated: 13 Apr, 2019 06:51 PM

why does lord shri krishna say donation is in vain

“दान” कहते हैं दान करने वाले इंसान को जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद भी पुण्य प्राप्त होते हैं। महाभारत आदि के भी कई पात्र ऐसे थे, जिन्होंने अपने जीवन काल में अधिक दान-पुण्य का काम किया।

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“दान” कहते हैं दान करने वाले इंसान को जीवन के साथ-साथ मृत्यु के बाद भी पुण्य प्राप्त होते हैं। महाभारत आदि के भी कई पात्र ऐसे थे, जिन्होंने अपने जीवन काल में अधिक दान-पुण्य का काम किया। बता दें दान-पुण्य की इस सूची में सबसे नाम महाभारत के प्रमुख पात्र कर्ण का नाम आता है। आज के समय में भी इन्हें ही सबसे बड़ा दानी कहा जाता है।

अब आप सोच रहे होंगे कि हम आपको कर्ण से जुड़ा कोई किस्सा बताने वाले हैं। जी हां, हम आपको ऐसा ही कुछ बताने वाले हैं। ये घटना श्रीकृष्ण और दान से जुड़ी हुई है। जिसके द्वारा श्रीकृष्ण ने अर्जुन को यह प्रमाण दिया था कि कर्ण और अर्जुन में कौन बड़ा दानी है। इसके साथ ही बताया था कि आख़िर क्यों कर्ण ही सबसे बड़े दानवीर कहलाए? इसके अलावा अपने इस आर्टकिल में बताएंगे कि कयों दान देना व्यर्थ है।
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प्राचीन काल की बात है श्रीकृष्ण और अर्जुन एक गांव से गुज़र रहे थे। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से दानवीर कर्ण की प्रशंसा की। जिसे सुनते ही अर्जुन ने कहा कि केशव आख़िर कर्ण ही क्यों सबसे बड़े दानी कहलाते हैं। मैं भी तो दान करता हूं, मैं भी तो दानी हुआ। फिर भी मुझे क्यों बड़ा दानी नहीं जाता। इस पर श्रीकृष्ण ने मुस्कुरा दिया और अपने सामने के दो लंबे पर्वतों को सोने का बना दिया। कहा-पार्थ ये दोनों सोने के पर्वत हैं, इन्हें गांव वालों में दान करके आओ लेकिन ध्यान रहे कि पर्वतों का एक-एक हिस्सा हर किसी को मिलना चाहिए। तुम अपने लिए कुछ भी नहीं रखोगे।

इसके बाद अर्जुन से श्रीकृष्ण का आशीर्वाद लिया और गांव चले गए। वहां जाकर उन्होंने सभी गांव वालों को इकट्ठा किया। अर्जुन ने गांव वालों से कहा कि सभी लाइन में खड़े हो जाओ। इसके बाद अर्जुन ने सोना बांटना शुरू कर दिया। सभी लोग अर्जुन की जय-जय करने लगे। अपनी जयकार सुनकर अर्जुन फुले नहीं समाए। गांव के लोग सोना लाते और दोबारा लाइन में लाग जाते। इस तरह पूरे दो  दिनों तक अर्जुन ऐसे ही करते रहे।
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लेकिन दो दिन सोना बांटना के बाद भी पहाड़ का सोने रत्ती भर भी कम नहीं हुआ। अर्जुन पसीने-पसीने होने लगे लेकिन गांव वालों से अपनी जयकार सुनकर फिर जोश में आ जाते और फिर सोना बांटने में जुट जाते। परंतु पहाड़ कम होने का नाम ही नहीं ले रहा था। आखिर अर्जुन बोले-हे केशव! मैं आप से क्षमा चाहता हूं लेकिन मैं ये काम और नहीं कर पाऊंगा। श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा- तुम्हें सच में विश्राम की आवश्यकता है।

इसके बाद इतने में श्रीकृष्ण ने कर्ण को बुलाया और अर्जुन की ही तरह कहा कि तुम इन दोनों स्वर्ण पर्वतों को गांव वालों के बीच बांट आओ। कर्ण ने श्रीकृष्ण की आज्ञा का पालन करते हुए गांव वालों को बुलाया और कहा- ये सोना आप सभी का है आप जितना चाहें ले लें और आपस में बांट लें। इतना कहकर कर्ण वहां से चले गए। ये देखकर अर्जुन पहले तो बहुत हैरान हुए। फिर उन्होंने श्रीकृष्ण से पूछा हे केशव! मुझे समझ में नहीं आता।

ऐसा करने का विचार मेरे मन में क्यों नहीं आया। जिस पर श्रीकृष्ण मुस्कुरा कर कहने लगे कि पार्थ सच तो ये है कि तुम्हें स्वर्ण से मोह हो गया था और तुम आकलन कर रहे थे कि किसकी कितनी ज़रूरत है और उसी हिसाब से तुम सोना गांव वालों के बीच बांट रहे थे।
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जब गांव वाले तुम्हारी जय जय करने लगे तो तुम खुद को दाता समझने लगे। इसके उलट कर्ण ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। उसने दोनों सोने के पर्वत गांव वालों में बांट दिया। क्योंकि कर्ण चाहते ही नहीं थे कि कोई उनकी जय-जय करे।

कर्ण को इस बात से फर्क नहीं पड़ा कि लोग उसकी पीठ के पीछे क्या बोल रहे हैं। कर्ण अच्छे से जानते थे कि वो एक माध्यम हैं जो परमात्मा द्वारा दी गई चीजों को लोगों तक पहुंचा रहे हैं। कहने का भाव ये है कि दान कुछ भी पाने की इच्छा से नहीं किया जाता। इस प्रकार श्रीकृष्ण ने अर्जुन को बताया कि वैसा दान हमेशा व्यर्थ है जिसमें किसी चीज़ को पाने की इच्छा होती है।

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