सामाजिक समानता दलित उत्थान एवं महिला शिक्षा के अग्रदूत: महात्मा ज्योतिबा फुले

Edited By rajesh kumar,Updated: 11 Apr, 2020 04:43 PM

social equality is the harbinger of dalit upliftment and women education

19वीं शताब्दी में समाज सुधार, दलित उत्थान व महिला शिक्षा एवं समानता के अग्रदूत महात्मा ज्योतिबा फुले को आज उनकी 193वीं जन्म जंयती पर कृतज्ञ राष्ट्र नमन कर रहा है। ज्योतिराव गोविन्दराव  फुले  का जन्म 11 अप्रैल 1827 को  महाराष्ट्र  के सतारा जिले के...

नई दिल्ली: 19वीं शताब्दी में समाज सुधार, दलित उत्थान व महिला शिक्षा एवं समानता के अग्रदूत महात्मा ज्योतिबा फुले को आज उनकी 193वीं जन्म जंयती पर कृतज्ञ राष्ट्र नमन कर रहा है। ज्योतिराव गोविन्दराव  फुले  का जन्म 11 अप्रैल 1827 को  महाराष्ट्र  के सतारा जिले के माली समाज में हुआ था जो उस समय निम्न जाति के अन्तर्गत आता था। उस समय समाज की सरंचना ऐसी थी कि निम्न जाति के लोगों को न समानता का  अधिकार था न शिक्षा प्राप्त करने का। इसी कारण ज्योतिराब को अपनी प्रांरभिक शिक्षा अधूरी छोड़नी पड़ी जिसे इन्होंने बाद में  21 वर्ष  की  आयु में स्काॅटिश मिशन स्कूल से पूरा किया।

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महात्मा ज्योतिबा फुले ने अपना संर्पूण जीवन दलित उत्थान व महिला शिक्षा को समर्पित किया। एक मान्यता के अनुसार, समाज के ऐसे वर्ग जिन्हें अस्पृश्य (अछूत) की श्रेणी में माना जाता था, उनके लिए ’दलित’ शब्द का प्रयोग भी प्रथम बार महात्मा ज्योतिबा फुले के द्वारा ही किया गया था। 13 वर्ष की आयु में ही इनका विवाह सावित्रीबाई फुले के साथ सम्पन्न हुआ। इन्होंने सावित्रीबाई फुले को  भी अपने समाज सुधार एवं महिला शिक्षा के कार्य में सहभागी बनाया। कभी-कभी कोई घटना व्यक्ति के जीवन में परिवर्तनकारी प्रभाव लेकर आती  है। महात्मा फुले के जीवन में भी ऐसी ही एक घटना घटित हुई जिसके बाद उनका जीवन समाज-सुधार, दलित-उत्थान व महिला शिक्षा को समर्पित हो गया। 1848 में ज्योतिबा फुले अपने एक ब्राह्म मित्र के यहाँ उसकी शादी में भाग लेने गऐ जिसमें ज्योतिबा फुले को जाति के आधार पर अपमानित किया गया। इस घटना के बाद ज्योतिबा ने निश्चय किया कि वो अपना जीवन समाज में जाति के आधार पर व्याप्त असमानता को दूर करने में लगाएंगे।
 
 उन्होनें इसके लिए शिक्षा एवं जागरूकता को प्रमुख साधन बनाया। 1840 में महात्मा फुले ने पुणे में स्त्री शिक्षा के लिए पहला भारतीय स्कूल खोला। इस विद्यालय में शिक्षा कार्य के लिए उन्होंने अपनी पत्नी को ही पढ़ाकर  तैयार किया। इस प्रकार सावित्रीबाई फुले भारत की पहली महिला अध्यापिका बनीं। आगे अन्य कई विद्यालय भी  महात्मा फुले के द्वारा स्थापित किऐ गऐ। महात्मा फुले को अपने समाजिक - उत्थान के कार्यों के चलते तत्कालीन ब्राह्मणवादी व्यवस्था का विरोध भी झेलना पड़ा। समाज के प्रभावशाली लोगों द्वारा इन्हें इनके पिताजी द्वारा ही घर से निकलवा दिया गया,  लेकिन वो महात्मा फुले के दृढ़ि निश्चय को डिगा नहीं पाऐ। महात्मा फुले जीवन भर समाज में व्याप्त बुराइयों से लड़ते रहे। उस समय समाज में लड़कियों का विवाह कम उम्र में ही बड़ी आयु के पुरूषों के साथ कर दिया जाता था। जिसके कारण वो कम उम्र में ही विधवा हो जाती है। महात्मा फुले ने न केवल बाल विवाह का विरोध किया व विधवाओं के पुनर्विवाह की वकालत की अपितु ऐसी विधवा जो गर्भवती थी उनके बच्चे को जन्म देने का भी समर्थन किया, जिसका तत्कालीन समाज विरोध करता था। इसके लिए उन्होंने एक आश्रम की भी स्थापना की जहाँ उनके सुरक्षित प्रसव की व्यवस्था कि जाती थी। महात्मा फुले ने स्वंय भी निःसंतान होने पर एक विधवा से उत्पन्न पुत्र को गोद लेकर समाज के लिए उदाहरण प्रस्तुत  किया।

महात्मा फुले के जीवन पर थाॅमस पेन की प्रसिद्ध पुस्तक ‘द राइट्स ऑफ मेन‘ का भी बहुत प्रभाव पड़ा। 1873 में महात्मा फुले ने ’‘सत्य शोधक समाज‘’की स्थापना की, जिसका मुख्य उद्देश्य सत्य की खोज वउससे समाज का परिचित कराना था। सत्य शोधक समाज के विचारों को जनमानस तक पहुँचाने के लिए ‘दीनबन्धु‘ समाचार पत्र का भी प्रकाशनकिया। सत्य शोधक समाज के द्वारा महात्मा फुले ने समाज में व्याप्त कुप्रथाओं, कर्मका डों, जाति प्रथा, अस्पृश्यता, बाल विवाह आदि का विरोध किया एवं सामाजिक समानता, दलित उत्थान, महिला शिक्षा, विधवा विवाह आदि को प्रोत्साहित किया। महात्मा फुले ने ब्राह्म पुरोहित के बिना ही विवाह   संस्कार आरम्भ कराया एवं इसे बंबई हाईकोर्ट से मान्यता भी दिलाई।

महात्मा फुले एक बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। वे न केवल समाज सुधारक बल्कि एक दार्शनिक, बिजनेसमेन,कुशल राजनेता व लेखक भी थे। उनकी प्रमुख कृत्तियों में‘गुलामगिरी‘, तृतीय रत्न, छत्रपति शिवाजी,अछूतों की कैफियत, किसान का कोड़ा आदि प्रसिद्ध हैं। महात्मा फुले 1876 से 1883 तक पूना म्यूनिसिपलिटी के कमिश्नर भी रहे। महात्मा फले कृषक कल्याण के लिए भी प्रयासरत रहते थे। इन्हीं के प्रयासों से तत्कालीन सरकार ने एग्रीकल्चर एक्ट पास किया। 11 मई 1880 को मुंबई (तत्कालीन  बंबई)  में आयोजित एक सभा में एक अन्य समाज सुधारक श्री बिठ्ठलराव कृष्ण जी वंडेकर द्वारा उन्हें ‘महात्मा‘ की उपाधि प्रदान की गई। भारतीय संविधान के निर्माता एवं भारत में दलित उत्थान के प्रखर प्रवक्ता डाॅ. भीमराव अम्बेडकर के जीवन पर भी महात्मा फुले के विचारों का अत्यन्त प्रभाव था। डाॅ. अम्बेडकर ने महात्मा बुद्ध एवं कबीर के साथ महात्मा फुले को अपने तीन गुरूओं एवं मार्गदर्शक के रूप में स्वीकार किया है।
 
अतिंम समय पर महात्मा फुले ने अपनी समस्त संपत्ति समाज के लिए समर्पित कर दी उन्होंने अपनी वसीयत में कहा कि मेरी समस्त संपत्ति समाज के कार्यों के लिए प्रयोग की जाए उन्होंने अपने पुत्र कोअपनी संपत्ति का   केवल 10 प्रतिशत भाग ही दिया ताकि उसकी आजीविका चलती रहे। महात्मा फुले का यह कृत्य उनकी समाज के प्रति गहरी संवेदना को प्रकट करता है। आज महात्मा फुले हमारे बीच नहीं  हैं। 28 नवम्बर 1890 को महात्मा फुले ने अपना देह त्याग किया, लेकिन उनके द्वारा प्रदान की गई शिक्षा एवं उनके द्वारा दिखाया मार्ग हमारे लिए पथ प्रदर्शक का कार्य कर रहा है। आज उनकी जयंती पर हम सभी उन्हें श्रद्धा सुमन अर्पित करते  है। (अर्जुन राम मेघवाल, संसदीय कार्य मंत्री)

 

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