Edited By Anu Malhotra,Updated: 13 Dec, 2025 03:43 PM

9 जून 2010 की उस रात रेल की एक पटरी नहीं, बल्कि इंसानियत की सारी हदें तोड़ दी गई थीं। ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को जानबूझकर पटरी से उतारकर 148 बेगुनाह यात्रियों की जान ले ली गई। जब इसी मामले में आरोपी ने जमानत की मांग की, तो सुप्रीम कोर्ट ने साफ संकेत...
नई दिल्ली: 9 जून 2010 की उस रात रेल की एक पटरी नहीं, बल्कि इंसानियत की सारी हदें तोड़ दी गई थीं। ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस को जानबूझकर पटरी से उतारकर 148 बेगुनाह यात्रियों की जान ले ली गई। जब इसी मामले में आरोपी ने जमानत की मांग की, तो सुप्रीम कोर्ट ने साफ संकेत दिया कि यह कोई सामान्य अपराध नहीं, बल्कि राष्ट्र की सुरक्षा और संप्रभुता पर सीधा हमला है। यही वजह रही कि ‘जेल नहीं, बेल’ के सिद्धांत से हटते हुए अदालत ने संभावित रूप से मौत की सजा तक का उल्लेख किया और यह स्पष्ट कर दिया कि ऐसे बर्बर आतंकी कृत्यों में सहानुभूति की कोई गुंजाइश नहीं होती।
क्या है मामला?
बता दें कि 9 जून 2010 को पश्चिम बंगाल में ज्ञानेश्वरी एक्सप्रेस की पटरी जानबूझकर उखाड़ दी गई थी। इसके बाद ट्रेन के पटरी से उतरने और एक मालगाड़ी से टकराने के कारण भीषण हादसा हुआ, जिसमें 148 लोगों की मौत हो गई और 170 से अधिक यात्री घायल हुए। जांच में सामने आया कि यह साजिश माओवादी कैडरों द्वारा रची गई थी। कलकत्ता हाई कोर्ट ने इस मामले में एक आरोपी को जमानत दे दी थी। इस फैसले को सीबीआई ने सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी।
सुप्रीम कोर्ट का साफ संदेश
जस्टिस संजय करोल और जस्टिस एन.के. सिंह की पीठ ने हाई कोर्ट के आदेश को पलटते हुए कहा कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता पूर्ण नहीं होती। उस पर राष्ट्रीय हित, संप्रभुता और देश की अखंडता जैसे बड़े सिद्धांतों की सीमाएं लागू होती हैं। कोर्ट ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार बेहद अहम है, लेकिन जब कोई व्यक्ति UAPA जैसे कानून के तहत देश की सुरक्षा को खतरे में डालने के आरोपों का सामना कर रहा हो, तो सिर्फ इसी आधार पर जमानत नहीं दी जा सकती।
‘राष्ट्रीय सुरक्षा के चश्मे से देखना होगा’
फैसले में कहा गया कि ऐसे मामलों को केवल आरोपी के अधिकारों तक सीमित रखकर नहीं देखा जा सकता। इन्हें राष्ट्रीय सुरक्षा के व्यापक नजरिए से परखना जरूरी है। अदालत ने माना कि यह हमला सरकार पर दबाव बनाने के उद्देश्य से किया गया था, ताकि झारग्राम इलाके से सुरक्षा बलों की तैनाती हटाई जा सके।
“बर्बरता माफ नहीं की जा सकती”
सुप्रीम कोर्ट ने दो टूक शब्दों में कहा कि विरोध करना हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार है, लेकिन कानून की सीमा में रहकर। ट्रेन की पटरियां उखाड़कर सैकड़ों यात्रियों की जान खतरे में डालना या उनकी जान लेना किसी भी हाल में स्वीकार्य नहीं है। हादसे में न सिर्फ जान-माल का भारी नुकसान हुआ, बल्कि करीब 25 करोड़ रुपये की सरकारी संपत्ति भी नष्ट हुई।
12 साल जेल में रहने का तर्क भी खारिज
आरोपी ने यह दलील दी थी कि वह 12 साल से ज्यादा समय से जेल में है, इसलिए उसे IPC की धारा 436A के तहत जमानत मिलनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने इस तर्क को भी सिरे से खारिज कर दिया। अदालत ने कहा कि इस तरह के आतंकी कृत्यों में संभावित सजा आजीवन कारावास या मृत्युदंड तक हो सकती है। ऐसे में 12 साल की कैद को जमानत का आधार नहीं बनाया जा सकता।