जेल में भगत सिंह ने बताया था 'मैं नास्तिक क्यों हूं?

Edited By Punjab Kesari,Updated: 28 Sep, 2017 02:54 PM

today shaheed bhagat singh s birthday

23 साल की उम्र में ही वे फांसी के फंदे पर खुशी-खुशी झूल गए। जिस उम्र में आज के युवा इश्क में पड़ कर मां-बाप को भूल जाते हैं उस उम्र में मौत को गले लगाने वाला भगत सिंह विरला ही था।

मेरे जज्बातों से इस कद्र वाकिफ है मेरी कलम
 मैं इश्क भी लिखना चाहूं तो

इन्कलाब लिखा जाता है

नेशनल डैस्क: ये पंक्तियां हैं शहीद भगत सिंह की। भारत माता के लिए मर-मिटने का जज्बा उनमें कूट-कूट कर भरा था। 23 साल की उम्र में ही वे फांसी के फंदे पर खुशी-खुशी झूल गए। जिस उम्र में आज के युवा इश्क में पड़ कर मां-बाप को भूल जाते हैं उस उम्र में मौत को गले लगाने वाला भगत सिंह विरला ही था। मोहब्बत उन्हें भी हुई और मुहब्‍बत भी इतनी जुनून भरी थी कि उन्होंने हंसते-हंसते फांसी को अपने गले का हार बनाया। 28  सितंबर 1907 को जन्मे भगत सिंह ने देश की आजादी के लिए अंग्रेजों के सामने डट गए थे। 13 अप्रैल, 1919 को हुए जलियांवाला बाग हत्‍याकांड ने भगत सिंह पर गहरा असर डाला था और वे भारत की आजादी के सपने सिर्फ देखते ही नहीं थे बल्कि उसे पूरा करने का पूरा दम भी रखते थे।

लाहौर षडयंत्र केस में उनको राजगुरु और सुखदेव के साथ फांसी की सजा हुई और 24 मई 1931 को फांसी देने की तारीख नियत हुई लेकिन नियत तारीख से 11 घंटे पहले ही 23 मार्च 1931 को उनको शाम साढ़े सात बजे फांसी दे दी गई, जो कि नाजायज तौर पर दी गई थी। उनके नाम एफआईआर में थे ही नहीं। झूठ को सच बनाने के लिए पाक सरकार ने 451 लोगों से झूठी गवाही दिलवाई। भगत सिंह को किताबें पढ़ना और कविताएं लिखने का बहुत शौक था। एक ऐसा देशभक्त जिसके पीछे पूरी अंग्रेज हुकूमत पड़ी थी और जेल में भी वे किताबें पढ़ते थे, उन्होंने एक किताब खुद भी लिखी थी। आजादी के लिए मर मिटने वाले भगत सिंह ने अपनी कलम से भी अपनी भावनाओं को व्‍यक्‍त किया।

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        उसे यह फिक्र है हरदम नया तर्जे-जफा क्या है,
        हमें यह शौक़ है देखें सितम की इन्तहा क्या है

उन्होंने जेल में एक लेख ' मैं नास्तिक क्यों हूं?' लिखा। कहते हैं जब स्वतंत्रता सेनानी बाबा रणधीर सिंह को यह पता चला कि भगत सिंह को भगवान में विश्‍वास नहीं है, तो वह किसी तरह जेल में भगत से मिले। रणधीर सिंह भी 1930-31 के बीच लाहौर के सेन्ट्रल जेल में बंद थे, वे एक धार्मिक व्यक्ति थे। उन्‍होंने भगत को भगवान के अस्तित्व पर यकीन दिलाने की खूब कोशिश की, लेकिन अफसोस कि वे सफल नहीं हो पाए। इस पर उन्होंने नाराज होकर भगत सिंह को कहा था- मशहूर होने के चलते तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है। तुम अहंकारी बन गए हो और मशहूर होना ही काले पर्दे के तरह तुम्हारे और भगवान के बीच खड़ा है।

रणधीर की इस बात का जवाब भगत ने उस समय तो नहीं दिया, लेकिन उसके जवाब में उन्‍होंने एक लेख लिखा।  जो आज भी बेहद प्रासंगिक है। भगत के इस लेख को लाहौर के अखबार 'द पीपल' ने 27 सितम्बर 1931 को प्रकाशित किया गया था।
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भगत सिंह की किताब कुछ अंश
एक नया प्रश्न उठ खड़ा हुआ है, क्या मैं किसी अहंकार के कारण सर्वशक्तिमान, सर्वव्यापी और सर्वज्ञानी ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास नहीं करता हूं? मेरे कुछ दोस्त– शायद ऐसा कहकर मैं उन पर बहुत अधिकार नहीं जमा रहा हूं– मेरे साथ अपने थोड़े से सम्पर्क में इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिये उत्सुक हैं कि मैं ईश्वर के अस्तित्व को नकार कर कुछ जरूरत से ज्यादा आगे जा रहा हूं और मेरे घमण्ड ने कुछ हद तक मुझे इस अविश्वास के लिए उकसाया है। मैं ऐसी कोई शेखी नहीं बघारता कि मैं मानवीय कमज़ोरियों से बहुत ऊपर हूं। मैं एक मनुष्य हूं, और इससे अधिक कुछ नहीं। कोई भी इससे अधिक होने का दावा नहीं कर सकता। यह कमज़ोरी मेरे अन्दर भी है। अहंकार भी मेरे स्वभाव का अंग है। अपने कॉमरेडों के बीच मुझे निरंकुश कहा जाता था। भगत सिंह कुदरत में विश्वास रखते थे, उनका मानना था कि अगर ईश्वर सर्वशक्तिमान होता तो ये सारे संताप और कष्ट दुनिया में न होते।

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मई 1927 में मैं लाहौर में गिरफ़्तार हुआ। पुलिस ने मुझे कहा गया कि अपने सभी ठिकानों और साथियों के बारे में बताने पर मुझे छोड़ दिया जाएगा। मुझे बोला गया भगवान का ध्यान करके सोचना कि मुझे क्या करना चाहिए लेकिन अब मैं एक नास्तिक था। क्या मुझे अब अपने लिए ईश्वर को याद करना चाहिए क्या जो मैंने सिद्धांत बनाए हैं उस पर अडिग रह सकता हूं। बहुत सोचने के बाद मैंने निश्चय किया कि किसी भी तरह ईश्वर पर विश्वास और प्रार्थना मैं नहीं कर सकता। नहीं, मैंने एक क्षण के लिए भी नहीं की। यही असली परीक्षण था और मैं सफल रहा। मैंने अपने लिए प्रार्थना नहीं की। मैं जानता हूं कि ईश्वर पर विश्वास ने आज मेरा जीवन आसान और मेरा बोझ हलका कर दिया होता। उस पर मेरे अविश्वास ने सारे वातावरण को अत्यन्त शुष्क बना दिया है। थोड़ा-सा रहस्यवाद इसे कवित्वमय बना सकता है। किन्तु मेरे भाग्य को किसी उन्माद का सहारा नहीं चाहिए। मैं यथार्थवादी हूं। अतः मैं भी एक पुरुष की भांति फांसी के फन्दे की अन्तिम घड़ी तक सिर ऊंचा किए खड़ा रहना चाहता हूं।

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