Baba Randevra Mela: जन-जन के आराध्य बाबा रामदेव का वार्षिक भादवा मेला आरंभ

Edited By Updated: 02 Sep, 2025 03:15 PM

baba randevra mela

Ramdev Mela 2025 : भारत-पाक सीमा से सटे सरहदी जैसलमेर जिले का विख्यात रामदेवरा गांव रुणीचा के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां अछूतोद्धारक, साम्प्रदायिक एकता के प्रतीक, मध्यकालीन लोकदेवता बाबा रामदेव की समाधि स्थित है। बाबा की समाधि पर भादवा मेले में...

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Ramdev Mela update 2025 : भारत-पाक सीमा से सटे सरहदी जैसलमेर जिले का विख्यात रामदेवरा गांव रुणीचा के नाम से भी प्रसिद्ध है। यहां अछूतोद्धारक, साम्प्रदायिक एकता के प्रतीक, मध्यकालीन लोकदेवता बाबा रामदेव की समाधि स्थित है। बाबा की समाधि पर भादवा मेले में बड़ी संख्या में भक्त पहुंचते हैं।

Ramdev Mela

Ramdev Mela 2025: विधिवत रूप से मेला भादवा माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया से एकादशी तक लगता है, लेकिन श्रद्धालुओं का आना श्रावण माह के शुक्ल पक्ष में शुरू हो जाता है और भादवा माह की पूर्णिमा तक जारी रहता है। विक्रम सम्वत् 1442 में भादवा माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी के दिन बाबा रामदेव ने 40 वर्ष की उम्र में रामदेवरा में समाधि ली थी।

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बाबा रामदेव का इतिहास
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार बाबा रामदेव पीर का जन्म पश्चिमी राजस्थान में पोखरण के पास रामदेवरा गांव में भादों शुक्ल पक्ष दूज के दिन विक्रम सम्वत् 1409 में हुआ था। इनके पिता रुणिचा के शासक अजमालजी तंवर और इनकी माता का नाम मैणादे था। महाराज अजमालजी निसंतान थे, जिस कारण वह काफी दुखी रहते थे। उस समय पोखरण क्षेत्र में भैरव नामक राक्षस का आतंक था। उससे अपनी प्रजा की रक्षा न कर पाने से भी महाराज अजमालजी दुखी थे।

राजा अजमालजी भैरव राक्षस को मारने का उपाय सोचते हुए द्वारका पहुंचे, जहां उनको भगवान द्वारकानाथ के साक्षात दर्शन हुए। महाराज बोले- हे प्रभु! अगर आप मेरी भक्ति से प्रसन्न हैं तो मुझे आपके समान पुत्र चाहिए अर्थात आपको मेरे घर पुत्र बनकर आना पड़ेगा और भैरव राक्षस को मारकर धर्म की पुनर्स्थापना करनी पड़ेगी।

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तब भगवान द्वारकानाथ ने कहा कि हे भक्त! जाओ मैं पुत्र के रूप में स्वयं आपके घर आऊंगा। महाराज अजमालजी के घर अवतरण के बाद बाबा रामदेवजी ने समाज में व्याप्त छुआछूत, जात-पात का भेदभाव दूर करने तथा नारी व दलित उत्थान के लिए प्रयास किए। सम्वत् 1426 में अमरकोट के राजा दलपत सोढा की अपंग कन्या नैतलदे को पत्नी स्वीकार कर आदर्श प्रस्तुत किया। उन्होंने दलितों को आत्मनिर्भर बनाने और सम्मान के साथ जीने के लिए प्रेरित किया, साथ ही पाखण्ड व आडम्बर का विरोध किया।
 
उन्होंने सगुन-निर्गुण, अद्वैत, वेदान्त, भक्ति, ज्ञान योग, कर्मयोग जैसे विषयों की सहज व सरल व्याख्या की, आज भी बाबा की वाणी को ‘हरजस’ के रूप में गाया जाता है। ज्यों-ज्यों रामदेवजी किशोरावस्था में प्रवेश कर रहे थे, उनके दैविक पुरुष होने के चर्चे दूर-दूर तक होने लगे।

जब उन्होंने भैरव राक्षस का वध कर लोगों को उसके आंतक से मुक्त करवाया और राक्षस की गुफा से उत्तर दिशा की तरफ कुंआ खुदवाकर रुणीचा गांव बसाया तो उनके चर्चे दूर-दूर तक सूर्य के प्रकाश की भांति फैलने लगे।

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उस समय भारत पर मुगल साम्राज्य के चलते कट्टरपंथ भी अपनी चरम पर था। किंवदंती के अनुसार, मक्का से पांच पीर रामदेव की शक्तियों का परीक्षण करने आए। रामदेवजी ने उनका स्वागत किया तथा उनसे भोजन करने का आग्रह किया।

पीरों ने कहा वे सिर्फ अपने निजी बर्तनों में भोजन करते हैं, जो इस समय मक्का में हैं। इस पर रामदेव मुस्कुराए और उनसे कहा कि देखिए आपके बर्तन आ रहे हैं और जब पीरों ने देखा तो उनके बर्तन मक्का से उड़ते हुए आ रहे थे।

रामदेवजी की क्षमताओं और शक्तियों से संतुष्ट होकर पीरों ने उन्हें प्रणाम किया तथा उन्हें रामसा पीर का नाम दिया। बाबा रामदेव की शक्तियों से प्रभावित होकर पांचों पीरों ने उनके साथ रहने का निश्चय किया।

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आज भी पांचों पीरों की मजारें रामदेव की समाधि के निकट स्थित हैं। बाबा रामदेवजी मुस्लिमों के भी आराध्य हैं जो रामसा पीर या रामशाह पीर के नाम से इनकी इबादत करते हैं।

रामदेवजी के दो पुत्र थे, जिनका नाम सादोजी और देवोजी था। रामदेवरा मंदिर से 2 किलोमीटर दूर पूर्व में निर्मित रुणीचा कुंआ और एक छोटा रामदेव मंदिर भी दर्शनीय है।

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बताया जाता है कि रानी नैतलदे को प्यास लगने पर रामदेवजी ने भाले की नोक से इस जगह पाताल तोड़कर पानी निकाला था और तब ही से यह स्थल ‘राणीसा का कुंआ’ के नाम से जाना गया, जो कालान्तर में अपभ्रंश होते-होते ‘रुणीचा कुंआ’ में परिवर्तित हो गया। बाबा रामदेवजी सभी मनुष्यों की समानता में विश्वास करते थे, चाहे वह उच्च या निम्न हो, अमीर या गरीब हो। उन्होंने दलितों को उनकी इच्छानुसार फल देकर उनकी मदद की। उन्हें अक्सर घोड़े पर सवार दर्शाया जाता है।

उनके अनुयायी राजस्थान, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, मुंबई से सिंध तक फैले हुए हैं। बाबा रामदेवजी ने भाद्रपद शुक्ल एकादशी विस 1442 को अपने स्थान पर जीवित समाधी ले ली थी।

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