Edited By Jyoti,Updated: 14 Jun, 2022 12:29 PM
एक ब्राह्मण से कोई अपराध हुआ और महाराज जनक ने उसे अपने राज्य से निष्कासित होने का दंड दिया। ब्राह्मण ने पूछा ‘‘महाराज! आपके राज्य की सीमा कहां तक है ताकि मैं उसके बाहर जा सकूं।’’
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एक ब्राह्मण से कोई अपराध हुआ और महाराज जनक ने उसे अपने राज्य से निष्कासित होने का दंड दिया। ब्राह्मण ने पूछा ‘‘महाराज! आपके राज्य की सीमा कहां तक है ताकि मैं उसके बाहर जा सकूं।’’
राजा जनक सोचने लगे कि वास्तव में उनके राज्य की सीमा कहां तक है। पहले तो उन्हें पृथ्वी के बड़े भूखंड पर अपना अधिकार-सा प्रतीत हुआ और फिर मिथिला नगरी पर।
आत्मज्ञान के झोंके में वह अधिकार घटकर प्रजा तक और फिर उनके शरीर तक सीमित हो गया। अंत में उन्हें अपने शरीर पर भी अधिकार प्रतीत नहीं हुआ। वह ब्राह्मण से बोले, आप जहां भी चाहें रहें, मेरा किसी भी वस्तु पर अधिकार नहीं है।
ब्राह्मण को आश्चर्य हुआ। उसने पूछा, ‘‘महाराज! इतने बड़े राज्य के अधिकारी होते हुए भी आप सभी वस्तुओं के प्रति कैसे निर्मोही हो गए हैं? अभी-अभी तो आप सम्पूर्ण पृथ्वी पर अपना अधिकार होने की सोच रहे थे न?
राजा जनक बोले, संसार के सभी पदार्थ नश्वर हैं। अत: मैं किसे अपने अधिकार में समझूं। जहां तक स्वयं को पृथ्वी का अधिकार समझने की बात है, मैं स्वयं के लिए तो कुछ करता ही नहीं हूं जो कुछ करता हूं वह देवता, पित्तर और अतिथि सेवा के लिए ही करता हूं। इसलिए पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु, प्रकाश और अपने मन पर मेरा अधिकार कैसे हुआ?
यह सुनते ही ब्राह्मण ने अपना चोला बदल दिया, बोला महाराज! मैं धर्म हूं। आपकी परीक्षा लेने के लिए ब्राह्मण वेश में आपके राज्य में वास कर रहा था। अत: हमें भी मोह-माया को त्यागते हुए यह सबक लेना चाहिए कि हम अहंकार से दूर रहेंगे।