Inspirational Context: घर की नींव हैं बुजुर्ग, फिर भी क्यों धुंधली होती जा रही उनकी छवि?

Edited By Updated: 15 Sep, 2025 06:00 AM

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Inspirational Context: तेजी से बदल रहे भारत में आज बुजुर्गों के लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीना एक बड़ी चुनौती समान हो गया है।

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Inspirational Context: तेजी से बदल रहे भारत में आज बुजुर्गों के लिए सम्मानपूर्वक जीवन जीना एक बड़ी चुनौती समान हो गया है। जी हां, यह वही भारत देश है, जहां हम ‘श्रवण’ की मिसाल देकर अपने बच्चों को बड़ा करते आए हैं, केवल इस आशा में, कि बड़े होकर वे भी श्रवण का अनुसरण करेंगे, परन्तु 21वीं सदी की बात ही कुछ और हो गई है।

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आज हर कोई प्रतिस्पर्धात्मक प्रकृति के वश अपने जीवन की आवश्यकताओं में परिवर्तन ला रहा है जिसके चलते बुजुर्गों की अहमियत निम्नतम स्तर की हो गई है। आज आपके ऊपर कितने आश्रितों की जिम्मेदारी है, उस अनुसार आपकी जीवनशैली बनती है, अत: आधुनिक मनुष्य के जीवन का मूल मंत्र है - ‘जितने कम आश्रित, उतना सुखी जीवन’।

जरा सोचिए उन बुजुर्गों के बारे में, जिन्होंने अपने परिवार की खातिर अपना सारा जीवन कुर्बान कर दिया और आज उन्हें यह सोचना पड़ रहा है कि इतना सब करके हमने क्या पाया और क्या खोया?

सचमुच यह कितनी निराशाजनक स्थिति है! जिन्होंने परिवार की खुशी के लिए अपनी हर इच्छा का दम घोंट लिया, उन्हें किसी की तरफ से अहसान या कृतज्ञता के दो बोल भी सुनने को नहीं मिले और ऊपर से सीना चीरने वाली तलवार तो तब चलती है, जब अपनी ही संतानों से यह बोल सुनने पड़ते हैं कि ‘आपने हमारे लिए किया ही क्या है?’ या आपने हम पर कोई मेहरबानी नहीं की है’।

यह दर्दनाक हालत जीवन की सांझ की ओर ढलते हर उस शख्स की है, जिसने अपनी जवानी फर्ज अदाई में विलीन कर दी, पर आज उसे उसकी मेहनत की कीमत कोई कर्म द्वारा तो क्या, शब्दों द्वारा भी देने को तैयार नहीं है। अपने ही परिवार द्वारा मिल रही ऐसी उपेक्षा का जिम्मेदार कौन? जिम्मेदार है हमारा अपना मोह। जी हां! यही मोह कारण बना माता कैकेयी को राजा दशरथ के द्वारा श्री राम को वनवास में भेजने के लिए और यही मोह कारण बना इतिहास के सबसे बड़े युद्ध महाभारत का।

अक्सर हम सभी अपने कर्तव्यों को पूर्ण करने में अपने पूरे अस्तित्व को लुप्त कर बैठते हैं, जिस कारण हम ‘न्यारा’ बनने में असफल हो जाते हैं। अत: हमें इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि अनावश्यक रूप से घर-परिवार के कार्यों में फंसे रहना, पुण्य कर्मों के लिए समय न निकालना, आत्म अवलोकन न करना, यह भूल जाना कि संसार से लौटना भी है, परमात्मा के प्रति पल-पल कृतज्ञता का इजहार न करना- ये कुछ ऐसी बातें हैं जो हमें कर्मों के बोझ तले लाद देती हैं और हमारा सुख-चैन हर लेती हैं। स्वाभाविक ही फिर हमारे मुख से यही निकलता है कि आखिर हमने इतना सब सभी के लिए किया, परंतु सामने हमें क्या मिला? केवल अपेक्षा?

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परिवार के मोह में हम यह भूल जाते हैं कि जिन्हें सारा जीवन हम ‘मेरा-मेरा’ कहते रहे, ऐसे मेरेपन से भरे संबंध छुईमुई के पौधे के समान होते हैं, जिसे स्पर्श करते ही उसमें मुरझाहट आ जाती है। हम तो उसे बड़े प्यार से सहलाते हैं, पर वह प्यार उसे रास नहीं आता और वह पौधा अपनी ताजगी त्याग देता है। ताजगी की वापसी के लिए पुन: सहलाने का जब प्रयास किया जाता है तो उसका परिणाम बद से बदतर होता जाता है।

ठीक इसी तरह मेरेपन और मोह से भरे संबंधों में भी ऐसा ही होता है। हम अपने मोह और मेरेपन से जितना उनको छूते हैं, खिलाते हैं, पिलाते हैं, वे उतने ही ज्यादा मुरझाते जाते हैं और हमसे दूर होते जाते हैं। तब हमें बड़ा अचरज होता है कि हम इनके लिए सब कुछ करते हैं, फिर भी ये खुश क्यों नहीं रहते?

पर हम यह भूल जाते हैं कि वे इसलिए खुश नहीं रहते क्योंकि उनका हाल छुईमुई जैसा हो जाता है और यह तो हम जानते ही हैं कि छुईमुई को ठीक करने के लिए हमें उससे ‘न्यारा’ होना पड़ता है अर्थात थोड़ा दूर होना पड़ता है। ज्यों ही हम उससे न्यारे हो जाते हैं, उसकी ताजगी वापस लौट आती है।

ठीक इसी प्रकार संबंधों में भी न्यारा पन आने से स्वाभाविक रूप से प्यारा पन आ जाता है और हम संबंध में रहते हुए निर्बंधन अवस्था को अनुभव कर पाते हैं। निर्बंधन का अर्थ है की हम सदैव यही चिन्तन में रहे कि हम तो केवल निमित्त मात्र हैं, इस शरीर में भी हम आत्मा निमित्त मात्र हैं और इस विशाल सृष्टि रूपी रंगमंच पर हमारा पार्ट भी निमित्त मात्र है। अत: यहां मेरा कुछ भी नहीं है, सब कुछ अस्थायी और नश्वर है।

अब जो चीज है ही अस्थायी, उससे स्थायित्व की आशा क्यों लगाएं? यदि कुछ स्थायी है तो वह है हम आत्मा और सर्व आत्माओं के पिता परमात्मा। तो क्यों न उस स्थायी सत्ता में हम अपना मन लगाएं?

तो आओ आज से हम सभी अपना पारिवारिक जीवन जीते हुए अलौकिक चिंतन  में अपना मन लगाकर हर कर्म ईश्वर को अर्पण करें और अपने मन  को ‘क्या पाया : क्या खोया?’ के बोझ से हल्का करके यही सोचें कि परमात्मा ने मुझे निमित्त बनाकर मुझसे सब कुछ करवाया। यदि यह सोचेंगे कि ‘मैंने किया’ तो दुख की प्राप्ति ही होगी, परन्तु यह सोचेंगे कि ‘उसने करवाया’ तो सदा सुखी और हल्के रहेंगे।

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