Edited By Sarita Thapa,Updated: 21 Oct, 2025 06:02 AM

सत्साहित्य का पठन, सत्विचारों की पुंजरूप पुस्तकों का अवलोकन मन के रोगों का अत्यधिक प्रभावी उपचार है। यह मन को माधुर्य से भर देता है, पवित्र बनाता है। जब संत समागम सुलभ न हो तो सद्ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए।
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Inspirational Context: सत्साहित्य का पठन, सत्विचारों की पुंजरूप पुस्तकों का अवलोकन मन के रोगों का अत्यधिक प्रभावी उपचार है। यह मन को माधुर्य से भर देता है, पवित्र बनाता है। जब संत समागम सुलभ न हो तो सद्ग्रंथों का स्वाध्याय करना चाहिए। सद्ग्रंथों द्वारा बड़े से बड़े महान पुरुषों की संगति से भी अधिक लाभ उठाया जा सकता है। सद्ग्रंथ रूपी सज्जन से कोई संकोच नहीं होता।

जीवन में कोई कमी होने पर भी किसी प्रकार की हीनता का अनुभव नहीं होता। अच्छे साहित्य से दिन भर में जितनी बार, जितना समय तथा जिस प्रकार भी चाहा जाए, इनके द्वारा यथेष्ट शंका समाधान किया जा सकता है। सद्ग्रंथ इस लोक के चिंतामणि रत्न के समान हैं, जिनको पढ़ने-पढ़ाने से मन की सभी कुभावनाएं और कुवासनाएं मिट जाती हैं, मन में पवित्र भाव जागते हैं तथा परम शांति प्राप्त होती है। साहित्य पढ़ने का आनंद निराला होता है परंतु पुस्तकों का चयन बुद्धिमानी से करना चाहिए।
मानवता का पाठ सिखाने वाली पुस्तकें पढ़ी जाएं। कुछ चरमपंथी सांप्रदायिक लोग अपने-अपने मजहब की पुस्तकों के अलावा और कुछ पढ़ना अपनी परंपरा के विरुद्ध मानते हैं, परंतु वास्तव में जिस साहित्य को पढ़ने से मन में विषमता, क्रोध-मान-माया-लोभ के भाव उभरते हैं और मन में हिंसक वृत्ति पैदा होती है, वह बुरा है। शृंगार रसपूर्ण पुस्तक तथा आलेख पढ़ने से आचरण पर कुठाराघात होता है। अश्लील साहित्य से मनुष्य का कल्याण नहीं अपितु पतन होता है। कामवासना को उत्तेजित करने वाला साहित्य सत्पुरुषों का मन विकृत कर देता है।

सच्चरित्र तथा सुसंस्कारी लोग भी कुग्रंथों को पढ़ने या सुनने से दुश्चरित्र बन जाते हैं। कुसाहित्य पढऩा विषपान के समान है और दुर्गति में ले जाने वाला वाहन है। सद्ग्रंथ के पठन-पाठन से पापात्मा भी पुण्यात्मा बन जाते हैं। आध्यात्मिक तथा मानसिक तृप्ति करने वाला साहित्य जीवन का निर्माण करता है क्योंकि इससे महान परिवर्तन आता है और आत्मा निर्मल तथा पवित्र बनती है। साहित्य महान मूर्धन्य विद्वानों, संतों तथा उपदेशकों का बहुमूल्य संदेश स्वयं में समेटे रहने से महत्वपूर्ण होता है।
सत्साहित्य पढऩे के पश्चात उसे जीवन में उतारना आवश्यक है अन्यथा मन रोगरहित नहीं हो सकता। स्वाध्याय के समान कोई दूसरा तप नहीं है। इससे ज्ञान बढ़ता है, विचारों में पवित्रता आती है। इसके बिना वृत्तियां दूषित तथा कलुषित हो जाती हैं, ज्ञान सीमित हो जाता है इसलिए प्रतिदिन नियमित रूप से श्रेष्ठ पुस्तकें पढ़ी जाएं।
