Edited By Punjab Kesari,Updated: 07 Jan, 2018 02:19 PM
क राजा की एक महात्मा पर बहुत श्रद्धा थी। राजा संत सेवा के महत्व को जानते थे। उन्होंने महात्मा जी के रहने के लिए अपने महल के समान एक बहुत बड़ा भवन बनवा दिया। उस भवन के सामने अपने उद्यान जैसा उद्यान बनवा दिया। हाथी, घोड़े, रथ दे दिए। सेवा के लिए सेवक...
एक राजा की एक महात्मा पर बहुत श्रद्धा थी। राजा संत सेवा के महत्व को जानते थे। उन्होंने महात्मा जी के रहने के लिए अपने महल के समान एक बहुत बड़ा भवन बनवा दिया। उस भवन के सामने अपने उद्यान जैसा उद्यान बनवा दिया। हाथी, घोड़े, रथ दे दिए। सेवा के लिए सेवक नियुक्त कर दिए। अपने समान ही अनेक सुख-सुविधाएं उन्होंने महात्मा जी के लिए जुटा दीं। राजा महात्मा जी के पास जाते रहते थे जिसकी वजह से वह महात्मा जी से काफी खुल गए थे। वह कभी-कभी उनसे हंसी-मजाक भी कर लिया करते थे।एक दिन राजा ने महात्मा जी से पूछा कि हम दोनों के पास सुख-सुविधा की सभी वस्तुएं मौजूद हैं। अब आप में और मुझ में अंतर क्या रहा? महात्मा समझ गए कि राजा के हृदय में बाह्य जीवन का ही महत्व है। महात्मा जी राजा से बोले, ‘‘राजन, इसका उत्तर कुछ समय बाद आपको मिल जाएगा।’’
कुछ दिन बाद राजा महात्मा जी से मिलने गए तो महात्मा जी ने राजा से सैर पर चलने का आग्रह किया। महात्मा की बात पर राजा तुरंत तैयार हो गए। महात्मा जी राजा के साथ वन की ओर चल दिए। जब दोनों काफी आगे निकल गए तब महात्मा राजा से बोले, ‘‘राजन, मेरी इच्छा इस नगर में लौटने की नहीं है। हम दोनों सुख-वैभव तो बहुत भोग चुके हैं। मेरी इच्छा है कि अब हम दोनों यहीं वन में रहकर भगवान का भजन करें।’’ राजा तुरंत बोले, ‘‘भगवन! मेरा राज्य है, मेरी पत्नी है, मेरे बच्चे हैं, मैं वन में कैसे रह सकता हूं?’’
महात्मा जी हंसकर बोले, ‘‘राजन, मुझमें और आपमें यह अंतर है। बाहर से एक जैसा व्यवहार होते हुए भी असली अंतर मन की आसक्ति का होता है। भोगों में जो आसक्त है वह वन में रहकर भी संसारी है। जो भोगों में आसक्त नहीं है वह घर में रहकर भी विरक्त है।’’