इन श्लोकों से जानें अधिक मास में श्री कृष्ण नाम के स्मरण का महत्व

Edited By Updated: 21 Sep, 2020 04:17 PM

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17 सितंबर को पितृ पक्ष के बाद इस बार अधिक मास आरंभ हो गया। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कई वर्षों बाद ऐसा संयोग बना है जब अधिक मास अश्विन मास में लगा है। कहा जाता है अधिक मास में भगवान विष्णु की पूजा करना शुभ माना जाता है।

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17 सितंबर को पितृ पक्ष के बाद इस बार अधिक मास आरंभ हो गया। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार कई वर्षों बाद ऐसा संयोग बना है जब अधिक मास अश्विन मास में लगा है। कहा जाता है अधिक मास में भगवान विष्णु की पूजा करना शुभ माना जाता है। हालांकि इस मास में विवाह आदि जैसे मांगलिक कार्य नहीं किए जाते हैं। पंरतु धार्मिक मान्यताओं तथा ज्योतिष शास्त्र की मानें तो इस दौरान यज्ञ, हवन, सत्यनारायण भगवान की पूजा के साथ-साथ दान-पुण्य जैसे कार्य किए जा सकते हैं। 
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सनातन धर्म के कई ग्रंथों व पुराणों में किए वर्णन के अनुसार भगवान विष्णुसम्पूर्ण जीवों के आश्रय होने के कारण भगवान श्री विष्णु ही नारायण कहे जाते हैं। सर्वव्यापक परमात्मा भी श्री हरि विष्णु को माना जाता है। जो सम्पूर्ण विश्व को अपनी शक्ति से ही संचालित करते हैं। निर्गुणऔर सगुण कहे जाने वाले भगवान विष्णु अपने चार हाथों में क्रमश: शंख, चक्र, गदा और पद्म, किरीट और कुण्डलों से विभूषित, पीताम्बरधारी, वनमाला तथा कौस्तुभमणि को धारण करने वाले, सुन्दर कमलों के समान नेत्र वाले भगवान श्री विष्णु का इस मास में ध्यान करने वाले जातक को भव-बन्धन से मुक्ति मिल जाती है। 

तो वहीं ये भी कहा जाता है अधिकमास में जो जातक एक बार श्रीकृष्ण के गुणों में प्रेम करने वाले अपने मन को श्रीकृष्ण के चरण कमलों में लगा देते हैं, वे अपने पापों से छूट जाता है, उसे कभी जीवन में पाश हाथ में लिए हुए यमदूतों के दर्शन स्वप्न में भी नहीं होते। 

इसके अलावा इन श्लोकों में वर्णित है अधिक मास का महत्व-
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श्री शुकदेवजी राजा परीक्षित्‌ से कहते हैं-
सकृन्मनः कृष्णापदारविन्दयोर्निवेशितं तद्गुणरागि यैरिह।
न ते यमं पाशभृतश्च तद्भटान्‌ स्वप्नेऽपि पश्यन्ति हि चीर्णनिष्कृताः॥

*अविस्मृतिः कृष्णपदारविन्दयोः
क्षिणोत्यभद्रणि शमं तनोति च।
सत्वस्य शुद्धिं परमात्मभक्तिं
ज्ञानं च विज्ञानविरागयुक्तम्‌॥

*पुंसां कलिकृतान्दोषान्द्रव्यदेशात्मसंभवान्‌।
सर्वान्हरित चित्तस्थो भगवान्पुरुषोत्तमः॥
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*शय्यासनाटनालाप्रीडास्नानादिकर्मसु।
न विदुः सन्तमात्मानं वृष्णयः कृष्णचेतसः॥

*वैरेण यं नृपतयः शिशुपालपौण्ड्र-
शाल्वादयो गतिविलासविलोकनाद्यैः।
ध्यायन्त आकृतधियः शयनासनादौ
तत्साम्यमापुरनुरक्तधियां पुनः किम्‌॥

*एनः पूर्वकृतं यत्तद्राजानः कृष्णवैरिणः।
जहुस्त्वन्ते तदात्मानः कीटः पेशस्कृतो यथा॥
 

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