Maha shivratri Vrat Katha: महाशिवरात्रि व्रत रखने वाले पढ़ें कथा और आरती

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 25 Feb, 2025 06:26 AM

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Mahashivratri Vrat Katha: प्राचीन काल में एक शिकारी जानवरों का शिकार करके अपने कुटुम्ब का पालन पोषण करता था। एक रोज वह जंगल में शिकार के लिए निकला लेकिन दिन भर भागदौड़ करने पर भी उसे कोई शिकार प्राप्त न हुआ। वह भूख-प्यास से व्याकुल होने लगा। शिकार...

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Mahashivratri Vrat Katha: प्राचीन काल में एक शिकारी जानवरों का शिकार करके अपने कुटुम्ब का पालन पोषण करता था। एक रोज वह जंगल में शिकार के लिए निकला लेकिन दिन भर भागदौड़ करने पर भी उसे कोई शिकार प्राप्त न हुआ। वह भूख-प्यास से व्याकुल होने लगा। शिकार की बाट निहारता-निहारता वह एक तालाब के किनारे बेल वृक्ष पर अपना पड़ाव बनाने लगा। बेल-वृक्ष के नीचे शिवलिंग था जो बिल्वपत्रों से ढका हुआ था। शिकारी को इस बात का ज्ञात न था।

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पड़ाव बनाते-बनाते उसने जो टहनियां तोड़ी, वे संयोग से शिवलिंग पर जा गिरी। शिकार की राह देखता-देखता वह बिल्व पेड़ से पत्ते तोड़-तोड़ कर शिवलिंग पर अर्पित करता गया। दिन भर भूखे-प्यासे शिकारी का व्रत भी हो गया और शिवलिंग पर बेलपत्र भी चढ़ गए। इस तरह वह अनजाने में किए गए पुण्य का भागी बन गया।

 रात्रि का एक पहर व्यतीत होने पर एक गर्भिणी मृगी तालाब पर पानी पीने आई। शिकारी ने धनुष पर तीर चढ़ाकर ज्यों ही प्रत्यंचा खींची, मृगी बोली, ‘शिकारी मुझे मत मारो मैं गर्भिणी हूं। शीघ्र ही प्रसव करूंगी। तुम एक साथ दो जीवों की हत्या करोगे, जो ठीक नहीं है। मैं अपने बच्चे को जन्म देकर शीघ्र ही तुम्हारे पास वापिस आ जाऊंगी, तब तुम मुझे मार लेना।’  

शिकारी को हिरणी सच्ची लगी उसने तुरंत प्रत्यंचा ढीली कर दी और मृगी झाड़ियों में लुप्त हो गई। कुछ समय उपरांत एक और मृगी उधर से निकली। शिकारी बहुत खुश हुआ की अब तो शिकार मिल गया। समीप आने पर उसने धनुष पर बाण चढ़ाया।  

मृगी ने विनम्रतापूर्वक निवेदन किया, ‘हे  शिकारी ! मैं थोड़ी देर पहले ही ऋतु से निवृत्त हुई हूं। कामातुर विरहिणी हूं। अपने प्रिय की खोज में भटक रही हूं। मैं अपने पति से मिलकर शीघ्र ही तुम्हारे पास आ जाऊंगी।’

शिकारी ने उसे भी जाने दिया। दो बार अपने शिकार को उसने स्वयं खो दिया, उसका माथा ठनका। वह चिंता में पड़ गया। रात्रि का आखिरी पहर बीत रहा था। तभी एक अन्य मृगी अपने बच्चों के साथ उधर से निकली शिकारी के लिए यह स्वर्णिम अवसर था। उसने धनुष पर तीर चढ़ाने में देर न लगाई, वह तीर छोड़ने ही वाला था कि मृगी बोली, ‘हे शिकारी ! मैं इन बच्चों को पिता के हवाले करके लौट आऊंगी। इस समय मुझे मत मार।’

शिकारी हंसा और बोला, ‘सामने आए शिकार को छोड़ दूं, मैं ऐसा मूर्ख नहीं। इससे पहले मैं दो बार अपना शिकार खो चुका हूं। मेरे बच्चे भूख-प्यास से तड़प रहे होंगे।’

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उत्तर में मृगी ने फिर कहा, ‘जैसे तुम्हें अपने बच्चों की ममता सता रही है, ठीक वैसे ही मुझे भी अपने बच्चों की चिंता है इसलिए सिर्फ बच्चों के नाम पर मैं थोड़ी देर के लिए जीवनदान मांग रही हूं। हे शिकारी ! मेरा विश्वास कर मैं इन्हें इनके पिता के पास छोड़कर तुरंत लौटने की प्रतिज्ञा करती हूं।’

मृगी का दीन स्वर सुनकर शिकारी को उस पर दया आ गई। उसने उस मृगी को भी जाने दिया। शिकार के आभाव में बेलवृक्ष पर बैठा शिकारी बेलपत्र तोड़-तोड़कर नीचे फेंकता जा रहा था। पौ फटने को हुई तो एक हष्ट-पुष्ट मृग उसी रास्ते पर आया। शिकारी ने सोच लिया कि इसका शिकार वह अवश्य  करेगा।

 शिकारी की तनी प्रत्यंचा देखकर मृग विनीत स्वर में बोला,‘ हे शिकारी  भाई! यदि तुमने मुझसे पूर्व आने वाली तीन मृगियों तथा छोटे-छोटे बच्चों को मार डाला है तो मुझे भी मारने में विलंब न करो, ताकि उनके वियोग में मुझे एक क्षण भी दुःख न सहना पड़े। मैं उन मृगियों का पति हूं। यदि तुमने उन्हें जीवनदान दिया है तो मुझे भी कुछ क्षण जीवनदान देने की कृपा करो। मैं उनसे मिलकर तुम्हारे सामने उपस्थित हो जाऊंगा।’

मृग की बात सुनते ही शिकारी के सामने पूरी रात का घटना-चक्र घूम गया। उसने सारी कथा मृग को सुना दी। तब मृग ने कहा, ‘मेरी तीनों पत्नियां जिस प्रकार प्रतिज्ञाबद्ध होकर गई हैं, मेरी मृत्यु से अपने धर्म का पालन नहीं कर पाएंगी। अतः जैसे तुमने उन्हें विश्वासपात्र मानकर छोड़ा है, वैसे ही मुझे भी जाने दो। मैं उन सबके साथ तुम्हारे सामने शीघ्र ही उपस्थित होता हूं।’

 उपवास, रात्रि जागरण तथा शिवलिंग पर बेलपत्र चढ़ाने से शिकारी का हिंसक हृदय निर्मल हो गया था। उसमें भगवद् शक्ति का वास हो गया था। धनुष तथा बाण उसके हाथ से सहज ही छूट गए। भगवान शिव की अनुकम्पा से उसका हिंसक हृदय कारुणिक भावों से भर गया। वह अपने अतीत के कर्मों को याद करके पश्चाताप की ज्वाला में जलने लगा।

थोड़ी ही देर बाद मृग सपरिवार शिकारी के समक्ष उपस्थित हो गया, ताकि वह उनका शिकार कर सके, किंतु जंगली पशुओं की ऐसी सत्यता, सात्विकता एवं सामूहिक प्रेम भावना देखकर शिकारी को बड़ी ग्लानि हुई। उसके नेत्रों से आंसुओं की झड़ी लग गई। उस मृग परिवार को न मारकर शिकारी ने अपने कठोर हृदय को जीव हिंसा से हटा सदा के लिए कोमल एवं दयालु बना लिया।

देव लोक से समस्त देव समाज भी इस घटना को देख रहा था। घटना की परिणति होते ही देवी-देवताओं ने पुष्प वर्षा की। तब शिकारी तथा मृग परिवार मोक्ष को प्राप्त हुए।

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Lord Shiva Aarti भगवान शिव की आरती
जय शिव ओंकारा ऊं जय शिव ओंकारा। ब्रह्मा विष्णु सदा शिव अद्र्धांगी धारा॥ ऊं जय शिव...॥

एकानन चतुरानन पंचानन राजे। हंसानन गरुड़ासन वृषवाहन साजे॥ ऊं जय शिव...॥

दो भुज चार चतुर्भुज दस भुज अति सोहे। त्रिगुण रूपनिरखता त्रिभुवन जन मोहे ॥ ऊं जय शिव...॥

अक्षमाला बनमाला रुण्डमाला धारी। चंदन मृगमद सोहै भाले शशिधारी॥ ऊं जय शिव...॥

श्वेताम्बर पीताम्बर बाघम्बर अंगे। सनकादिक गरुणादिक भूतादिक संगे॥ ऊं जय शिव...॥

कर के मध्य कमंडलु चक्र त्रिशूल धर्ता। जगकर्ता जगभर्ता जगसंहारकर्ता॥ ऊं जय शिव...॥

ब्रह्मा विष्णु सदाशिव जानत अविवेका। प्रणवाक्षर मध्ये ये तीनों एका॥ ऊं जय शिव...॥

काशी में विश्वनाथ विराजत नन्दी ब्रह्मचारी। नित उठि भोग लगावत महिमा अति भारी॥ ऊं जय शिव...॥

त्रिगुण शिवजी की आरती जो कोई नर गावे। कहत शिवानन्द स्वामी मनवांछित फल पावे॥ ऊं जय शिव...॥

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