महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती को 194वें जन्मोत्सव पर श्रद्धासुमन

Edited By Updated: 10 Feb, 2018 08:17 AM

maharshi swami dayanand saraswati commemorates 194th birth anniversary

किसी भी महापुरुष के नाम के आगे या पीछे केवल एक ही अलंकार लगा करता है जैसे महात्मा व महर्षि आदि। लेकिन यदि हम आर्य समाज के संस्थापक के विषय में सोचते हैं तो तीन अलंकार सहज ही लग जाते हैं। महर्षि, स्वामी, सरस्वती। महर्षि इसलिए लगा, क्योंकि वह एक महान...

किसी भी महापुरुष के नाम के आगे या पीछे केवल एक ही अलंकार लगा करता है जैसे महात्मा व महर्षि आदि। लेकिन यदि हम आर्य समाज के संस्थापक के विषय में सोचते हैं तो तीन अलंकार सहज ही लग जाते हैं। महर्षि, स्वामी, सरस्वती। महर्षि इसलिए लगा, क्योंकि वह एक महान ऋषि हुए, जिन्होंने न केवल एक श्रेष्ठ ऋषि होने का परिचय दिया, अपितु वेदों का पुनरुद्धार करके वेदोद्धारक कहलाए। स्वामी अलंकार किसी संन्यासी के आगे तब लगता है, जब वह अपनी समस्त इन्द्रियों (पांच ज्ञानेन्द्रियों, पांच कर्मेन्द्रियों) को वश में करके एक आदर्श महापुरुष की तरह व्यवहार तथा जीवनयापन करके एक आदर्श स्वामी कहलाता है। स्वामी जी के नाम के पीछे सरस्वती अलंकार का लगाना इसलिए उचित है, क्योंकि उन्होंने चारों वेदों, ग्यारह उपनिषदों व छह दर्शनों को माता सरस्वती की विशेष कृपा से पढ़कर, समझकर, जानकर न केवल अपने जीवन में धारण किया, अपितु समाज को भी एक सही व उचित रास्ता दिखाया और यह रास्ता कोई अलग या नया नहीं था। उन्होंने केवल भारत की वैदिक परम्पराओं तथा ऋषियों व महर्षियों द्वारा बताए हुए रास्ते को ही पुन:स्थापित किया। 


पिता कर्षण जी तिवारी तथा माता ने कब सोचा होगा कि फाल्गुन मास की दसवीं तिथि सन् 1824 को उनके घर में जिस बालक ने जन्म लिया वह भविष्य में एक युग प्रवर्तक महामानव के रूप में जाना जाएगा। बालक मूल शंकर (महर्षि दयानन्द जी का बचपन का नाम) तीव्र बुद्धि तथा जिज्ञासु वृत्ति के स्वामी थे। 22 वर्ष की आयु होते मूल शंकर जी के जिज्ञासु मन में ईश्वर को जानने की लगन तथा परिवार में अपनी छोटी बहन व चाचा जी की मृत्यु ने उनके हृदय पर गहरा आघात पहुंचाया और उन्होंने मृत्यु रूपी महारोग की महाऔषधि ढूंढने तथा अमर जीवन प्राप्त करने का दृढ़ निश्चय किया। 


अन्तत: 24 वर्ष की आयु में पुन: अपना गृह त्याग कर निकले और फिर वापस नहीं आए। स्वामी पूर्णानन्द जी सरस्वती से संन्यास की दीक्षा लेकर स्वामी दयानन्द के नाम से विख्यात हुए। 13 वर्ष तक स्वामी दयानन्द जी एक सच्चे गुरु की खोज में एक स्थान से दूसरे स्थान तक भटकते रहे। अन्तत: मथुरा नगरी में एक प्रख्यात गुरु विरजानन्द जी महाराज की कुटिया का जब दरवाजा खटखटाया तो अंदर से पूछा गया, कौन है? उत्तर दिया कि यही तो जानने आया हूं। सुनते ही अंदर से दंडी स्वामी गुरु विरजानन्द जी ने द्वार खोल दिया। कुछ प्रश्नों के पश्चात गुरु जी ने कहा दयानन्द अब तक जो तुमने अध्ययन किया है, उसका अधिक भाग अनार्ष ग्रन्थ है। जब तक तुम अनार्ष पद्धति का परित्याग नहीं कर देते, तब तक आर्ष ग्रन्थों का महत्व व मर्म नहीं समझ सकोगे। इसलिए इस अनार्ष ज्ञान को यमुना में बहा दो। दयानन्द जी ने गुरु आज्ञा को शिरोधार्य करके ऐसा ही किया। 


3 वर्ष तक स्वामी दयानन्द जी ने गुरु चरणों में बैठकर गहन अध्ययन किया और इन 3 वर्षों में बहुत से अवसर भी आए, जब गुरु जी ने क्रोधित होकर अपने प्रिय शिष्य को कठोर दंड भी दिया परंतु दयानन्द जी ने अपनी गुरु सेवा में कोई न्यूनता नहीं दिखाई और गुरु आज्ञा को शिरोधार्य किया तथा गुरु विरजानन्द जी ने भी सारा ज्ञान, प्यार व दुलार केवल दयानन्द को ही दिया। 


जब शिक्षा पूर्ण होने पर विदाई का समय आया तो स्वामी जी ने पुरातन आर्य मर्यादा के अनुसार गुरु के समीप खाली हाथ जाना उचित नहीं समझा अत: कुछ लौंग ले गए और गुरु चरणों को प्रणाम किया तथा निवेदन किया कि महाराज आपने मुझ पर असीम कृपा करके मुझे विद्या का दान दिया है। उसके लिए मेरा रोम-रोम आजीवन  आपका ऋणी रहेगा। गुरु जी ने कहा वत्स मैं तुम्हारे लिए मंगलकामना करता हूं कि ईश्वर आपकी विद्या को सफलता प्रदान करे परंतु गुरु दक्षिणा में मुझे तुमसे कुछ और ही अपेक्षा है।


स्वामी जी ने हाथ जोड़कर कहा गुरुदेव आज्ञा दीजिए मैं आपकी आज्ञा को शिरोधार्य करूंगा और जीवनभर निभाऊंगा। 


गुरु जी ने कहा वत्स मेरे देश में अनार्ष मत मतान्तरों के कारण जो देश की दशा बिगड़ी हुई है, उसको सुधारकर वैदिक ग्रन्थों के पठन-पाठन में लोगों की रुचि बढ़ाकर मेरे भारत के लोगों का कल्याण करो और इसी कार्य में अपना जीवन लगाओ। यही मेरी गुरु दक्षिणा होगी। 


स्वामी दयानन्द ने अपने गुरु की आज्ञा का किस प्रकार पालन किया जाता है, उसका एक विलक्षण उदाहरण आने वाली पीढिय़ों के लिए स्थापित किया। स्वामी दयानन्द जी ने किस प्रकार गुरु आज्ञा का पालन किया पूरा आर्य जगत इस बात का प्रत्यक्ष प्रमाण है। ऐसे परम गुरु को शत-शत प्रणाम है। 

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