भक्त प्रह्लाद के लिए श्री हरि ने लिया था नरसिंह अवतार

Edited By Jyoti,Updated: 04 May, 2020 03:04 PM

narasimha incarnated by shri hari for the devotee prahlad

दैत्यराज हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे। प्रहाद उनमें सबसे छोटे थे। जब भगवान ने हिरण्याक्ष को मार दिया, तब हिरण्यकशिपु बहुत ही क्रोधित हुआ और उसने अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने का निश्चय किया।

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दैत्यराज हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे। प्रहाद उनमें सबसे छोटे थे। जब भगवान ने हिरण्याक्ष को मार दिया, तब हिरण्यकशिपु बहुत ही क्रोधित हुआ और उसने अपने भाई की मृत्यु का बदला लेने का निश्चय किया। स्वयं को अजेय एवं अमर बनाने के लिए उसने हिमालय पर जाकर ब्रह्मा जी को प्रसन्नता के लिए सहस्त्रों वर्षो तक कड़ी तपस्या की। हिरण्यकशिपु की तपस्या से संतुष्ट होकर ब्रह्मा जी ने उसे अस्त्र-शस्त्र से, रात में, दिन में, जमीन पर, आकाश में तथा किसी भी प्राणी से न मारे जाने का वरदान दिया।
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हिरण्यकशिपु के तपस्या काल में देवराज इंद्र ने उसके राज्य पर आक्रमण कर दिया। दैत्य परास्त होकर भाग गए। देवराज इंद्र ने हिरण्यकशिपु कौ पत्नी कयाधू को बंदी बना लिया और देवलोक ले जाने लगे। उस समय प्रह्लाद गर्भ में थे। देवर्षि नारद ने कयाधू के गर्भ में भगवद भक्त होने की बात कह कर इंद्र से कयाधू को छुड़ा लिया और उसे अपने आश्रम में आश्रय दिया। देवर्षि नारद कयाधू को भगवद भक्ति का उपदेश करते थे, फलस्वरूप गर्भ में ही प्रह्लाद ने उन उपदेशों को ग्रहण कर लिया।

वरदान प्राप्त करके वापस लौटने पर हिरण्यकशिपु ने समस्त देवताओं एवं लोकपालों पर विजय प्राप्त कर ली और वह धर्म का घोर विरोधी हो गया। उसके राज्य में पूजा-पाठ, यज्ञ आदि सब धार्मिक अनुष्ठान बंद कर दिए गए। प्रह्माद को उसने अपने गुरु पुत्र शण्ड तथा अमर्क के पास शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेज दिया।

एक बार प्रह्मद घर आए तो उनकी माता ने उनसे पिता हिरण्यकशिपु के चरणों में प्रणाम करवाया। हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को गोद में बिठा लिया और उससे स्नेहपूर्वक पूछा, “बेटा! अब तक तुमने जो कुछ पढ़ा है, उसमें से कोई अच्छी बात मुझे भी सुनाओ।”
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प्रह्लाद ने कहा, "पिता जी इस असत्‌ संसार में सभी प्राणी आसक्त होकर माया के चक्कर में पड़े रहते हैं। सबको इस संसार के माया जाल का त्याग करके श्री हरि का भजन करना चाहिए।"

यह सुन कर हिरण्यकशिपु को लगा कि उसके बच्चे को किसी शत्रु ने बहका दिया है। तब उसने गुरु पुत्रों शण्ड तथा अमर्क को सावधान करते हुए प्रह्नाद को दैत्य कुल के अनुरूप धर्म, अर्थ और काम का उपदेश देने का निर्देश दिया। गुरु पुत्रों ने जब प्रहाद को भली-भांति सुशिक्षित कर लिया, तब वे उन्हें पुनः हिरण्यकशिपु के पास लाए। हिरण्यकशिपु ने पुत्र से उत्तम ज्ञान के विषय में पूछा। प्रहाद ने नवधा भक्ति की व्याख्या करते हुए भगवान के श्री चरणों में मन लगाने को अध्ययन का सर्वोत्तम फल बतलाया। नन्हा- सा बालक उसके शत्रु विष्णु का पक्ष लें, यह हिरण्यकशिपु के लिए असह्य हो गया और उसने दैत्यों को प्रह्मद को तत्काल मार डालने का आदेश दे दिया।

भक्त प्रह्लाद के शरीर स्पर्श से दैत्यों के हथियार टुकड़े-टुकड़े हो गए। शेर और मतवाले हाथी उनके सामने पहुंचते ही शांतहो गए, विष अमृत हो गया। भक्त को जलाने के प्रयास में होलिका स्वयं जल कर राख हो गई। अंत में हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को स्वयं मारने का निश्चय किया। उसने कहा, '' मूर्ख बालक, तू जिसके बल पर मेरा तिरस्कार करता है, उसे बुला। अब मैं स्वयं तेरा वध करूंगा।'' 
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इस पर प्रह्लाद ने खड्ग, खम्भ तथा सर्वत्र भगवान के होने की बात कही। यह सुन कर हिरण्यकशिपु ने खम्भ पर प्रहार किया और जोर की आवाज के साथ भगवान नृसिंह का प्राकट्य हुआ। उन्होंने अपनी जांघ पर रख कर हिरण्यकशिपु का हृदय फाड़ डाला और भक्त प्रह्मद को निर्भय कर दिया।”

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