धूम धाम से मनाया गया श्री राधारमण देव जू का 479वां प्राकट्य महोत्सव, जानें इससे जुड़ी कथा

Edited By Updated: 26 May, 2021 02:37 PM

shri radharaman dev ju vrindavan

सन् 1556 को वैक्रमीय माघ कृष्ण तृतीया तिथि के दिन दक्षिण स्थित बेल्गुरी ग्राम में एक अनन्य वैष्णव श्रीवेंकट भट्ट जी के यहां श्री गोपाल भट्ट जी का जन्म हुआ था।

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सन् 1556 को वैक्रमीय माघ कृष्ण तृतीया तिथि के दिन दक्षिण स्थित बेल्गुरी ग्राम में एक अनन्य वैष्णव श्रीवेंकट भट्ट जी के यहां श्री गोपाल भट्ट जी का जन्म हुआ था। बचपन से ही ये प्रतिभा शाली, सौम्य व सुशील थे। लोक मत है कि दक्षिण यात्रा के समय प्रेमावातार श्री राधा कृष्ण के अभिन्न स्वरूप कलि पावनावतार श्रीचैतन्य महाप्रभु जी ने इन्हीं श्रीवेंकट भट्ट जी के पास चातुर्मास्य किया था। 

श्रीमन्महाप्रभु ने श्रीगोपाल भट्ट जी को स्वयं अष्टादशाक्षरीय गोपाल मंत्र की दीक्षा प्रदान की और अविवाहित रहकर पूर्ण ब्रह्मचर्य का पालन किया। माता पिता के जीवित रहते उनके समीप रहे, सम्पूर्ण सर्वशास्त्रों का विध्याध्य्न किया, इसके उपरांत श्रीवृन्दावन आकर भजन, संकीर्तन, चिंतन और शास्त्र मर्म प्रकट करने वाले उत्कृष्ट ग्रंथों के प्रणय के साथ सर्व वैश्नावोप्योगी हरिभक्ति विलास वैष्णव स्मृति की सर्वशास्त्र प्रमाण युक्त रचना की एवं श्रीवृन्दावन में श्री राधागोविंद की निभ्रत लीलाओं तथा लीला स्थलियों को प्रकट करने की आज्ञा दी।

श्रीमन्महाप्रभु के आदेश प्रवाह में प्रवाहित होते हुए श्री गोस्वामी पाद श्रीधाम वृन्दावन पधारे तथा सुभद्र संत परिवेश में अन्यतम होकर भजन भाव रत विराजने लगे।

इनका स्वरूप अर्जित अभिराम तथा स्वभाव भाव दिव्यातिदिव्य ललाम था। इनके नृत्य, लय, ताल, मधुर स्वर, समन्वित पदावली, श्लोकवली एवं नामावली संकीर्तन के समय श्री धाम के समस्त समवेत भक्तगण समाहित-उन्मत और विभोर होकर अश्रुपात करते थे।
 
श्रीगोपालभट्ट जी ने श्री महाप्रभु के नीलांचल जाकर दर्शन करने की उत्कृष्ट लालसा थी जो उत्तरोतर तीव्र विरह में परिणत होकर उन्हें अति विह्वल करती रहती। श्रीगोपाल भट्ट पाद के भजन, शास्त्र सृजन तथा स्वरति रस निमग्न से अभिभूत होकर श्रीमहाप्रभु ने अपने धारण किये हुए दिव्य वस्त्र डोर, कोपीन, बहिर्वास, योगपट (पीठासन)तथा सन्देश पत्रिका अपने स्वकृपारूप वैष्णव जन के द्वारा श्री गोस्वामी जी के लिए वृन्दावन प्रेषित किए।

पत्रिका में उल्लेख था, "तुम्हे नीलांचल आने की अपेक्षा नहीं, मैं ही तुम्हारे पास वृन्दावन आ रहा हूं"। 

सारे भक्त आर्तनाद कर उठे। श्रीभट्ट जी की अवस्था तो अवर्णननीय विरह की पराकाष्ठा में पहुंच गई। रात्रि भर कालिंदी कूल कुटीर में हे! गौरहरि..हे! गौरहरि-कहकर रूदन करते रहे, तड़पते रहे। श्री चैतन्य महाप्रभु का स्वप्नादेश प्राप्त कर देववन, बद्रिकाश्रम होते हुए परम स्थल गंडगी नदी से श्री दामोदर लक्षण युक्त विलक्षण शालिग्राम प्राप्त किया।

श्रीवृन्दावन आकर बड़े भाव-विरह से श्री दामोदर शिला की अर्चना-सेवा करने लगे। सर्वांग श्रृंगार कला निष्णात आचार्य पाद स्तम्भ से भगवान श्री नृसिंह के प्राक्ट्य लीला चरित्र से अत्यंत अभिभूत हो उठे तथा अहोरात्रि पर्यंत अश्रुपात करते रहे और संवत 1599 वैशाख शुक्ल पूर्णिमा को प्रात:ब्रह्म महूर्त में दामोदर शिला की अर्चना हेतु जब पिटकोनमोचन किया। तो श्री दामोदर शिला से भगवान श्रीराधारमण देव भट्ट प्रभु की अर्चना स्वीकार करने हेतु प्रकट हो गए।

अपने गुरुदेव श्री मन्महाप्रभु को श्री राधारमण देव के रूप में विग्रहवंत निहारकर श्री गोपाल भट्ट गोस्वामी पाद और श्री दामोदर दास गोस्वामी पाद आनंद के अपार पारावार में निमग्न हो गए। श्री मन्महाप्रभु जी श्री जगन्नाथ विग्रह में अर्न्तध्यान होकर स्वयंभू श्रीराधारमण विग्रह में साक्षात् प्रकट हो गए।

कालिंदी कूल का यह पूजा स्थल ही डोल है। यहीं पर रासलीला के समय श्रीकृष्ण ने श्रीराधा का अनखशिख श्रृंगार किया। अन्नंतर गोपीगण परितोष के हेतु स्वयं अर्न्तध्यान हो गए। प्रिया जी ने "हे! रमण प्रेष्ठ क्वासि क्वासि महाभुज" विरह में यह उच्चारण किया और इसी आधार से श्री भट्ट जी ने श्री विग्रह का नाम 'श्रीराधारमण' रख दिया। 

श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी कलिकाल में भगवान् सनकादिकों के अवतार श्री प्रहलाद जी के समान ही है। जिनके प्राणानुराग से श्रीदामोदर शालिग्राम शिला से श्रीराधारमण देव का आलौकिक आविर्भाव हुआ। श्रीराधारमण देव के अनेक अलौकिक चमत्कार और प्रत्यक्ष श्रीराधागोविंद तथा श्री मन्महाप्रभु होने की अनुभूतियां और अनुग्रह की गाथाएं भक्तों को आनंदविभोर करती हैं।

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