Srimad Bhagavad Gita: द्वेष का त्याग करें, कर्म का नहीं

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Nov, 2023 08:09 AM

srimad bhagavad gita

अज्ञान के कारण व्यक्ति भौतिक संपत्ति को हड़पने में लगा रहता है, जिससे कर्म के बंधन में वृद्धि होती है। जब जागरूकता की पहली किरण निकलती है, तो वह त्याग के बारे में सोचने लगता

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Srimad Bhagavad Gita: अज्ञान के कारण व्यक्ति भौतिक संपत्ति को हड़पने में लगा रहता है, जिससे कर्म के बंधन में वृद्धि होती है। जब जागरूकता की पहली किरण निकलती है, तो वह त्याग के बारे में सोचने लगता है, जैसे अर्जुन यहां कोशिश कर रहे हैं। भ्रम इस बात में है कि क्या त्यागें। सामान्य प्रवृत्ति सभी कर्मों या कार्यों को त्यागने की है, क्योंकि हम उन्हें अपने हमेशा विभाजन करने वाले मन से अच्छे या बुरे के रूप में विभाजित करते हैं और अवांछित कर्मों को छोड़ना चाहते हैं।

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दूसरी ओर, कृष्ण त्याग के संबंध में एक पूर्ण प्रतिमान प्रस्तुत करते हैं और कहते हैं जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा, वह कर्मयोगी नित्यसंन्यासी ही समझने योग्य है, क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष (5.3) सुखपूर्वक संसार-बंधन से मुक्त हो जाता है। पहली चीज, जिसका हमें त्याग करना चाहिए, वह है द्वेष। यह किसी भी चीज की ओर हो सकता है जो हमारी मान्यताओं के खिलाफ जाती है, जैसे धर्म, जाति या राष्ट्रीयता। नफरत हमारे पेशे, लोगों या हमारे आसपास की चीजों के प्रति हो सकती है। स्पष्ट अंतावरोध में एकता देखना महत्वपूर्ण है। नित्य संन्यासी द्वेष के साथ-साथ इच्छाओं का भी त्याग करता है।

कृष्ण हमें द्वेष और इच्छाओं जैसे गुणों को त्यागने की सलाह देते हैं। सच्चाई यह है कि कर्मों का कोई वास्तविक त्याग नहीं है क्योंकि हम एक कर्म का त्याग कर अपने गुणों के प्रभाव में दूसरे कर्म को करने लगते हैं इसलिए हमें अपने बाहरी कर्मों की बजाय हमारे अंदर रहने वाले नामांकन को त्यागना चाहिए।

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कृष्ण आगे कहते हैं, ‘‘ज्ञानयोगियों द्वारा जो परमधाम प्राप्त किया जाता है, कर्मयोगियों द्वारा भी वही प्राप्त किया जाता है इसलिए जो पुरुष ज्ञानयोग को और कर्मयोग को फलरूप में देखता है, (5.5) वही यथार्थ देखता है। कर्मयोग के बिना होने वाले अर्थात मन, इन्द्रिय और शरीर द्वारा होने वाले सम्पूर्ण कर्मों में कर्तापन का त्याग प्राप्त होना कठिन है और भगवानस्वरूप को मनन करने वाला कर्मयोगी परब्रह्म परमात्मा को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।’’ (5.6)

कर्म वे यंत्र हैं, जो हमें यह पता लगाने में मदद करते हैं कि हमारे अंदर कितनी घृणा या इच्छाएं हैं। इसलिए, कृष्ण उन्हें त्यागने  की  बजाय निष्काम कर्म करने के लिए प्रोत्साहित करते हैं।

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