Edited By Jyoti,Updated: 01 May, 2022 12:14 PM

जनक जैसे राजाओं ने केवल नियत कर्मों के करने से ही सिद्धि प्राप्त की। अत: सामान्य जनों को शिक्षित करने की दृष्टि से तुम्हें कर्म करना चाहिए। जनक जैसे राजा स्वरूपसिद्ध व्यक्ति थे, अत: वह वेदानुमोदित कर्म
शास्त्रों की बात , जानें धर्म के साथ
श्रीमद्भगवद्गीता
यथारूप
व्याख्याकार :
स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
श्रीमद्भगवद्गीता श्लोक-
कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादय:।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ।। 20।।
अनुवाद एवं तात्पर्य-
जनक जैसे राजाओं ने केवल नियत कर्मों के करने से ही सिद्धि प्राप्त की। अत: सामान्य जनों को शिक्षित करने की दृष्टि से तुम्हें कर्म करना चाहिए। जनक जैसे राजा स्वरूपसिद्ध व्यक्ति थे, अत: वह वेदानुमोदित कर्म करने के लिए बाध्य न थे। तो भी वे लोग सामान्य जनों के समक्ष आदर्श प्रस्तुत करने के उद्देश्य से सारे नियत कर्म करते रहे।

जनक सीताजी के पिता तथा भगवान श्रीराम के श्वसुर थे। भगवान के महान भक्त होने के कारण उनकी स्थिति दिव्य थी, किंतु चूंकि वह मिथिला के राजा थे (जो भारत के बिहार प्रांत में एक परगना है), अत: उन्हें अपनी प्रजा को यह शिक्षा देनी थी कि कर्तव्य-पालन किस प्रकार किया जाता है।

भगवान कृष्ण तथा उनके शाश्वत सखा अर्जुन को युद्ध में लड़ने की कोई आवश्यकता नहीं थी, किंतु उन्होंने जनता को यह सिखाने के लिए युद्ध किया कि जब सत्परामर्श असफल हो जाते हैं तो ङ्क्षहसा आवश्यक हो जाती है। कुरुक्षेत्र युद्ध के पूर्व युद्ध निवारण के लिए भगवान तक ने सारे प्रयास किए, किंतु दूसरा पक्ष लड़ने पर तुला था। अत: ऐसे सद्धर्म के लिए युद्ध करना आवश्यक था। यद्यपि कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को संसार में कोई रुचि नहीं हो सकती तो भी वह जनता को यह सिखाने के लिए कि किस तरह रहना और कार्य करना चाहिए, कर्म करता रहता है।