यहां देवी लक्ष्मी ने किया था इस पावन कुंड का निर्माण, जानें मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा

Edited By Jyoti,Updated: 08 Nov, 2020 04:09 PM

tadkeshwar temple in uttarakhand

​​​​​​​सनातन धर्म में यूं तो प्रत्येक देवी-देवता को अपना-अपना दिन यहां तक कि त्यौहार भी समर्पित है। जिस दौरान इनकी खास प्रकार से पूजा आदि की जाती है।

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सनातन धर्म में यूं तो प्रत्येक देवी-देवता को अपना-अपना दिन यहां तक कि त्यौहार भी समर्पित है। जिस दौरान इनकी खास प्रकार से पूजा आदि की जाती है। मगर कुछ दिन ऐसे भी होते हैं जब एक ही दिन पर सनातन धर्म के अलग-अलग देवी-देवताओं की पूजा की जाती है। हम बात कर रहे हैं कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को मानाए जाने वाले धनतेरस के त्यौहार की, जिस दिन किसी एक देवता ही नहीं बल्कि अनेक देवी-देवताओं की आराधना की जाती है। इसका कारण है इस दिन से जुड़ी धार्मिक मान्यताएं व कथाएं।
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जिनमें से एक किंवदंति के अनुसार इस दिन देवी लक्ष्मी की भी पूजा की जाती है। तो वहीं इस दिन सोने-चांदी, पीतल के बर्तनों आदि की खरीददारी करने से जीवन में धन की वर्षा होती है। आपकी जानकारी के लिए बता दें इस वर्ष धनतेरस का त्यौहार 13 नवंबर दिन शुक्रवार को मनाए जाएगा। चूंकि धनतेरस का दिन देवी लक्ष्मी से भी जुड़ा हुआ है इसीलिए इस खास अवसर को मद्देनज़र हम आपको देवी लक्ष्मी से जुड़े ऐसे मंदिर के बारे में बताने जा रहे, जिससे जुड़ी किंवदंतियां ये प्रचलित हैं, यहां स्थापित एक कुंड का निर्माण स्वंय देवी लक्ष्मी ने कियाष था। साथछ ही ये भी बताया जाता है इस मंदिर में स्थापित शिवलिंग का जलाभिषेक भी इस कुंड के पावन जल से ही किया जाता है।  
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जिस मंदिर की हम बाच कर रहे हैं ये मंदिर उत्तराखंड की पावन भूमि पर स्थित है, जिसे ताड़केश्वर मंदिर के नाम से जाना जाता है। कहा जाता है भगवान शिव का ये मंदिर इनके सिद्ध पीठों में से एक माना जाता है, जो बलूत और देवदार वनों से बीचो-बीच स्थापित है। मंदिर के पास कई छोटे-छोटे झरने भी बहते हैं।

तो वहीं मंदिर परिसर में एक खास व रहस्यमयी कुंड स्थित है। इससे जुड़ी लोक प्रचलित कथाओं की मानें तो इस कुंड का निर्माण स्वयं माता लक्ष्मी ने किया था। वर्तमान समय में इसी कुंड से पानी लेकर मंदिर में स्थित शिवलिंग का अभिषेक किया जाता है। आस पास के निवासी बताते हैं कि यहां सरसों का तेल तथा शाल के पत्तों को लाना वर्जित है।

मंदिर से पौराणिक कथओं के बात करें तो प्राचीन समय में ताड़कासुर नामक राक्षस ने भगवान शिव से अमरता का वरदान प्राप्त करने के लिए इस ही स्थल पर घोर तप किया था। जब शिव जी ने उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर उसे मनचाहा वरदान दे दिया तो ताड़कासुर अत्याचारी हो गया। जिसके बाद सभी देवताओं उसके अत्याचारकों से परेशान होकर भगवान शिव से प्रार्थना करने गए कि वह ताड़कासुर का अंत करें।
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परंतु ताड़कसुर का अंत केवल शिव-पार्वती पुत्र कार्तिकेय कर सकते थे। अपने पिता भगवान शिव के आदेश पर कार्तिकेय ताड़कासुर से युद्ध करने पहुंचे। अपना अंत नजदीक जानकर ताड़कासुर भगवान शिव से क्षमा मांगने लगा। जिसके बाद भोलेनाथ ने असुरराज ताड़कासुर को क्षमा कर देते हैं। साथ ही साथ उसे वरदान देते हैं कि कलयुग में इस स्थान पर मेरी पूजा तुम्हारे नाम से होगी। यही कारण है कि इस मंदिर का नाम असुरराज ताड़कासुर के नाम से ताड़केश्वर प्रसिद्ध है।

इसके अलावा इस मंदिर को लेकर एक दंतकथा भी प्रसिद्ध है, जिसके अनुसार एक साधु यहां रहते थे जो आस-पास के पशु पक्षियों को सताने वाले को ताड़ते यानि दंड देते थे। जिनके नाम से यह मंदिर ताड़केश्वर के नाम से जाना गया।

कहा यह भी जाता है ताड़कासुर से युद्ध व कार्तिकेय द्वारा उसका वध किए जाने के बाद भगवान शिव ने यहां पर विश्राम किया था। विश्राम के दौरान भगवान शिव पर सूर्य की तेज किरणें पड़ रही थीं। जिस दौरान भगवान शिव पर छाया करने के लिए स्वयं माता पार्वती 7 देवदार वृक्षों का रूप धारण कर वहां प्रकट हुईं। जिस कारण आज भी यह मंदिर के पास स्थित 7 देवदार  वृक्षों की, देवी पार्वती का स्वरूप मानकर पूजा की जाती है।
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