क्लाउड सीडिंग से पैसा बर्बाद! डॉक्टरों की चेतावनी – अब तो बच्चों के फेफड़े भी काले, विशेषज्ञों की राय- दिल्ली से भाग जाओ...

Edited By Updated: 10 Nov, 2025 03:02 PM

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दिल्ली की हवा इन दिनों ज़हर से भरी है। हर सांस के साथ लोगों के फेफड़ों में प्रदूषण उतर रहा है। ऐसे में उम्मीद थी कि 'क्लाउड सीडिंग' यानी कृत्रिम बारिश से इस धुंध को धोने में मदद मिलेगी, लेकिन अब इस प्रयोग की समयसिद्धता और वैज्ञानिक तर्क पर ही सवाल...

नेशनल डेस्क: दिल्ली की हवा इन दिनों ज़हर से भरी है। हर सांस के साथ लोगों के फेफड़ों में प्रदूषण उतर रहा है। ऐसे में उम्मीद थी कि 'क्लाउड सीडिंग' यानी कृत्रिम बारिश से इस धुंध को धोने में मदद मिलेगी, लेकिन अब इस प्रयोग की समयसिद्धता और वैज्ञानिक तर्क पर ही सवाल उठने लगे हैं। मौसम वैज्ञानिकों ने पहले ही साफ चेतावनी दी थी कि दिल्ली के आसमान में न तो बादल हैं, न नमी — यानी बारिश की संभावना लगभग शून्य थी। इसके बावजूद भी इस महंगे प्रयोग को अंजाम दिया गया।

जलवायु विशेषज्ञ मंजरी शर्मा (Climate Trends) के अनुसार, यह पूरा प्रयास "वैज्ञानिक दृष्टि से गलत समय पर किया गया प्रयोग" था। उन्होंने कहा कि भारत मौसम विभाग (IMD) ने पहले ही IIT दिल्ली को स्पष्ट कर दिया था कि वायुमंडल में नमी बेहद कम है और क्लाउड सीडिंग की सफलता के लिए कम से कम 60-70 प्रतिशत नमी जरूरी होती है।

अस्थायी राहत, भारी खर्च
पर्यावरण विशेषज्ञों का कहना है कि मान लीजिए यह प्रयोग सफल भी होता, तो भी इसका असर महज दो से ढाई दिन तक ही रहता। प्रदूषण फिर से लौट आता — यानी लगातार क्लाउड सीडिंग करनी पड़ती, जिसका खर्च हर बार करोड़ों में होता। अनुमान है कि अगर पूरी सर्दियों में यह प्रक्रिया जारी रखी जाए, तो 25 से 30 करोड़ रुपये तक का खर्च आएगा।

 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 
 

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न बादल, न नमी – क्यों नहीं बरसी बारिश
दिल्ली-एनसीआर की हवा में इस समय नमी का स्तर बेहद कम है। आसमान साफ है और हवा में धूलकणों की मात्रा बहुत अधिक। ऐसे में बारिश कराने की तकनीक असफल होना तय था। क्लाइमेट ट्रेंड्स की रिपोर्ट बताती है कि क्लाउड सीडिंग तभी सफल हो सकती है जब पर्याप्त बादल मौजूद हों, लेकिन इस समय वायुमंडल "सूखा" था, इसलिए पूरा प्रयोग व्यर्थ साबित हुआ।

डॉक्टरों की चेतावनी – “अब तो बच्चों के फेफड़े भी काले”
दिल्ली की जहरीली हवा सिर्फ प्रयोगों की नाकामी नहीं दिखा रही, बल्कि मानव शरीर के भीतर तबाही की तस्वीर भी पेश कर रही है। गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल में फेफड़ों के विशेषज्ञ डॉ. अरविंद कुमार ने बताया कि पिछले 30 वर्षों में उन्होंने मरीजों के फेफड़ों में डरावना बदलाव देखा है। “पहले के मरीजों के फेफड़े हल्के गुलाबी होते थे, जो स्वच्छ हवा में सांस लेने वालों के निशान होते हैं। आज वही फेफड़े पूरी तरह परमानेंट काले हो चुके हैं — धूल, कालिख और जहरीले कणों से भरे हुए।” डॉ. कुमार का कहना है कि पहले यह स्थिति सिर्फ धूम्रपान करने वालों या फैक्ट्री कर्मचारियों में दिखती थी, लेकिन अब बच्चों और महिलाओं के फेफड़े भी कोयले जैसे काले दिखने लगे हैं।

विशेषज्ञों की राय — बारिश नहीं, नीति चाहिए
मंजरी शर्मा का कहना है कि दिल्ली में सिर्फ कृत्रिम बारिश या सड़कों पर पानी छिड़कने से कोई बड़ा फर्क नहीं पड़ेगा। “लोगों को क्लीन एयर की मांग करनी चाहिए, न कि क्लाउड सीडिंग जैसी अस्थायी राहत पर निर्भर रहना चाहिए। अगर संभव हो तो इस जहरीली हवा से बचने के लिए दिल्ली से दूर जाना ही बेहतर है।”

वायु प्रदूषण अब केवल सांस लेने में तकलीफ की समस्या नहीं रह गया है - यह धीरे-धीरे मौत की सबसे बड़ी वजह बनता जा रहा है। हाल ही में जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक, प्रदूषित हवा से जुड़ी बीमारियों के कारण मौतों का प्रतिशत चिंताजनक स्तर पर पहुंच गया है। आंकड़ों के अनुसार -

36% मौतें स्ट्रोक (Stroke) के कारण होती हैं, जो प्रदूषित हवा से मस्तिष्क पर पड़ने वाले असर का नतीजा है।

33% मौतें फेफड़ों के कैंसर (Lung Cancer) से जुड़ी हैं, जो लंबे समय तक धूल, धुआं और जहरीले कणों के संपर्क में रहने से होता है।

31% लोग हृदय रोग (Heart Disease) के शिकार होकर जान गंवाते हैं।

20% मौतें क्रॉनिक ऑब्सट्रक्टिव पल्मोनरी डिजीज (COPD) जैसी फेफड़ों की बीमारियों से होती हैं।

विशेषज्ञों का कहना है कि दिल्ली-एनसीआर और उत्तर भारत के प्रदूषित इलाकों में अब बच्चों और युवाओं के फेफड़े भी तेजी से कमजोर हो रहे हैं।
हवा में मौजूद सूक्ष्म कण (PM 2.5) न केवल फेफड़ों को नुकसान पहुंचाते हैं, बल्कि हाइपरटेंशन, डायबिटीज़, एनीमिया और मल्टी-सिस्टम ऑर्गन फेलियर जैसी स्थितियां भी पैदा कर सकते हैं।

डॉक्टरों की चेतावनी:
गुरुग्राम स्थित मेदांता हॉस्पिटल के फेफड़ा विशेषज्ञों का कहना है कि “प्रदूषण अब धीरे-धीरे हर अंग पर असर डाल रहा है — हृदय, मस्तिष्क, फेफड़े, किडनी और यहां तक कि नसों की कार्यप्रणाली भी इसकी चपेट में आ रही है।”


 

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