Bawani Imli Tree: बावनी इमली का इतिहास, जहां 52 क्रांतिकारियों ने हंसते-हंसते दी थी शहादत

Edited By Updated: 27 Apr, 2025 02:38 PM

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उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के खजुहा कस्बे के पास स्थित ‘बावनी इमली’ का पेड़ आजादी के बलिदानियों का अहम साक्षी है। 28 अप्रैल, 1858 को क्रूर अंग्रेजों ने एक साथ 52 राष्ट्रभक्तों को इससे लटका कर फांसी दे दी थी

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Bawani Imli Tree: उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के खजुहा कस्बे के पास स्थित ‘बावनी इमली’ का पेड़ आजादी के बलिदानियों का अहम साक्षी है। 28 अप्रैल, 1858 को क्रूर अंग्रेजों ने एक साथ 52 राष्ट्रभक्तों को इससे लटका कर फांसी दे दी थी। आजादी के संघर्ष में कई नायकों के नाम तो लोगों की जुबान पर हैं, वहीं कुछ ऐसे हैं, जिन्होंने देश के लिए अपनी जिंदगी न्यौछावर तो कर दी, लेकिन देश की जनता अभी भी उनके नाम और कारनामों से अनजान ही है। इनमें अमर शहीद ठाकुर जोधा सिंह ‘अटैया’ और इनके 51 साथी भी शामिल हैं। जिस समय देश में अंग्रेजों का अत्याचार चरम सीमा पर था, यही हालात फतेहपुर जिले में भी थे, जहां अंग्रेजों ने लोगों का जीना दुश्वार कर दिया था।

इससे परेशान लोगों ने संकल्प लिया कि फिरंगियों को देश से हर हाल में खदेड़ना है, चाहे इसके लिए जिंदगी ही क्यों न कुर्बान करनी पड़े। 29 मार्च, 1857 को जब बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे ने क्रांति का बिगुल फूंका, तो उसकी गूंज पूरे भारत में सुनाई दी और 10 मई, 1857 को मेरठ से होते हुए इस ङ्क्षचगारी का असर 10 जून, 1857 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले तक पहुंच गया।

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ठाकुर जोधा सिंह राजपूत उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के अटैया रसूलपुर गांव के निवासी थे, जो कानपुर से करीब 80 किलोमीटर दूर है। वह झांसी की रानी लक्ष्मीबाई से काफी प्रभावित थे। इन्होंने अंग्रेजों के खिलाफ पहले स्वतंत्रता संग्राम में बढ़कर हिस्सा लिया और फिरंगियों को मात देने के लिए तात्या टोपे से सीखी गुरिल्ला वार की कला का सहारा लिया था।

1857 में क्रांतिकारी साथियों का दल बनाया, जिन्होंने अक्तूबर, 1857 को महमूदपुर गांव में एक अत्याचारी अंग्रेज दारोगा और सिपाही को जिंदा जला दिया। लैफ्टिनैंट कर्नल पावेल ने नेतृत्व में गोरी फौज ने जोधा सिंह और उनके साथियों को घेर कर हमला कर दिया। दोनों तरफ से भीषण युद्ध हुआ। इस लड़ाई में कर्नल पावेल मारा गया।

7 दिसंबर को रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला कर तबाही मचा दी। इसके दो दिन बाद यानी 9 दिसम्बर, 1857 को जहानाबाद के तहसीलदार को बंदी बनाकर सरकारी खजाना लूट लिया। इन सारी घटनाओं से परेशान अंग्रेजों ने जोधा सिंह अटैया को डकैत घोषित कर दिया और उन्हें गिरफ्त में लेने की लगातार कोशिश करते रहे लेकिन वे कई बार अंग्रेजों को चकमा देने में सफल रहे थे।

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एक मुखबिर की सूचना पर अंग्रेज अधिकारी कर्नल क्रिस्टाइल की घुड़सवार सेना ने सभी को एक साथ बंदी बना लिया और उसी दिन सभी को उत्तर प्रदेश के फतेहपुर स्थित खजुहा में एक इमली के पेड़ पर फांसी से लटका दिया था। इसी पेड़ को अब ‘बावनी इमली’ के नाम से जाना जाता है। अंग्रेजों ने लोगों को आतंकित करने के लिए सभी शवों को पेड़ से उतारने से मना कर रखा था। चेतावनी दी थी कि ऐसा करने की जो भी हिमाकत करेगा, उसका यही अंजाम होगा। इसके चलते इन सभी क्रांतिकारियों के शव एक महीने से अधिक वक्त तक पेड़ से ही लटके रहे और इनके केवल कंकाल बचे थे।

चील-कौए इन शवों को नोच-नोचकर खाते थे। अंतत: अमर शहीद जोधा सिंह के साथी ठाकुर महाराज सिंह ने अपने 900 क्रांतिकारियों के साथ जून, 1858 की रात को पेड़ से उतारकर गंगा नदी किनारे स्थित शिवराजपुर घाट पर इनका अंतिम संस्कार किया। यह जगह और इमली का यह बूढ़ा पेड़ देशवासियों के लिए किसी तीर्थ से कम नहीं है। इसके नीचे 52 छोटे स्तंभ बनाए गए हैं, जो बताते हैं कि यहीं ठाकुर जोधा सिंह अटैया और उनके साथियों ने भारत माता की आजादी के लिए कुर्बानी दी थी।         

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