Edited By Niyati Bhandari,Updated: 24 Nov, 2023 09:42 AM
अनुवाद एवं तात्पर्य : जो कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है किन्तु जिसका मन इन्द्रिय विषयों का चिन्तन करता रहता है वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा
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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप व्याख्याकार: स्वामी प्रभुपाद
साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्। इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचार: स उच्यते।।
अनुवाद एवं तात्पर्य : जो कर्मेन्द्रियों को वश में तो करता है किन्तु जिसका मन इन्द्रिय विषयों का चिन्तन करता रहता है वह निश्चित रूप से स्वयं को धोखा देता है और मिथ्याचारी कहलाता है।
ऐसे अनेक मिथ्याचारी व्यक्ति होते हैं जो कृष्णभावनामृत में कार्य तो नहीं करते किन्तु ध्यान का दिखावा जरूर करते रहते हैं जबकि वास्तव में वे मन में इंद्रिय भोग का चिंतन करते रहते हैं।
ऐसे लोग अपने अबोध शिष्यों को बहकाने के लिए शुष्क दर्शन के विषय में भी व्याख्यान दे सकते हैं किन्तु इस श्लोक के अनुसार वे ही सबसे बड़े धूर्त हैं।
इंद्रिय सुख के लिए किसी भी आश्रय में रह कर कर्म किया जा सकता है, किन्तु यदि उस विशिष्ट पद का उपयोग विधि-विधानों के पालन में किया जाए तो व्यक्ति की क्रमश: आत्मशुद्धि हो सकती है।
किन्तु जो अपने को योगी बताते हुए इंन्यितृप्ति के विषयों की खोज में लगा रहता है वह सबसे बड़ा धूर्त है, भले ही वह कभी-कभी दर्शन का उपदेश क्यों न करे।
उसका ज्ञान व्यर्थ है क्योंकि ऐसे पापी पुरुष के ज्ञान के सारे फल भगवान की माया द्वारा हर लिए जाते हैं। ऐसे धूर्त का चित्त सदैव अशुद्ध रहता है। अतएव, उसके यौगिक ध्यान का कोई अर्थ नहीं होता।