Edited By Niyati Bhandari,Updated: 10 Sep, 2023 09:29 AM
यह कथा लगभग 500 वर्ष पहले की है। जब श्री चैतन्य महाप्रभु इस धरातल पर हरि नाम का प्रचार कर रहे थे। महाप्रभु हरि नाम का गुणगान करते हुए जंगल से निकल रहे थे।
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Sri Chaitanya Mahaprabhu Katha: यह कथा लगभग 500 वर्ष पहले की है। जब श्री चैतन्य महाप्रभु इस धरातल पर हरि नाम का प्रचार कर रहे थे। महाप्रभु हरि नाम का गुणगान करते हुए जंगल से निकल रहे थे। उधर से छाछ बेचने वाला जा रहा था। छाछ वाले ने सोचा मुझे एक छाछ पीने वाला मिल गया, यह मुझसे अवश्य छाछ खरीदेगा। वो मन ही मन बहुत खुश हुआ। महाप्रभु को भी उस समय बहुत प्यास लगी थी, उन्होंने छाछ वाले को कहा, "तुम मुझे छाछ पिला सकते हो ?"
उसने सारा घड़ा महाप्रभु को दे दिया। महाप्रभु को बहुत प्यास लगी थी तो उन्होंने सारी छाछ पी ली और वो वहां से जाने लगे। तब छाछ वाले ने उन्हें रोका और पैसे मांगने लगा। उसने कहा, "आपने मेरे से छाछ पी है तो इसके बदले में आपको कुछ तो देना होगा।"
महाप्रभु कहने लगे," मैं एक योगी हूं, मेरे पास देने को कुछ नहीं है।"
छाछ वाला बोला, "ऐसे कैसे ? आपको कुछ तो दाम देना होगा।"
तब महाप्रभु कहने लगे," ठीक है, मेरे पास जो भी है, मैं तुम्हें दे देता हूं।"
छाछ वाला बड़ी उत्सुकता से देखने लगा कि उनके पास क्या है ?
महाप्रभु ने कहा, उनके पास हरिनाम रसधारा। तुम भी रस का अस्वादन करो।
छाछ वाला असंमजस्य में पड़ गया। हरिनाम रसधारा का मैं क्या करुंगा। जब महाप्रभु वहां से जाने लगे तो उन्होंने कहा, "मेरे शिष्य कुछ देर में यहां से निकलेंगे, तुम उनसे मांगना। अगर उनके पास देने को कुछ हो तो ले लेना।" इतना कह कर महाप्रभु चले गए।
छाछ वाला इंतजार करने लगा, उनसे कुछ पैसे लूंगा। तब कृष्णानंद प्रभु और उनके शिष्य वहां से गुजर रहे थे। तो छाछ वाले ने देखा कि इन सबके माथे पर भी तिलक और गले में कंठी है। उसने जान लिया कि ये भी वही योगी हैं। वे कीर्तन करते आ रहे थे तो छाछ वाले ने उन्हें बोला," आपके गुरु मेरी सारी छाछ पी गए हैं और कुछ भी नहीं दे कर गए। उसके बदले में आप मुझे कुछ दो।"
वह कहने लगे, "हमारे गुरु वैरागी हैं और हम भी वैरागी। हमारे पास भी देने को कुछ नहीं है। अगर तुम्हें कुछ चाहिए, तो चलो हमारे साथ नाम जपो।"
ऐसा कहने के बाद वो भी चले गए। छाछ वाला सोचने लगा कि यह भी कुछ नहीं देकर गए। वह अपने घर के लिए निकल पड़ा। उसने घड़ा सिर पर रखा और चलने लगा। एक दम उसको एहसास होने लगा कि घड़ा भारी होता जा रहा है। चलते-चलते वह सोचने लगा चलो उन्होंने मुझे कुछ तो दिया। भले पैसा नहीं दिया लेकिन कुछ तो दिया। आज मैंने साधु सेवा की और मुझे जो मिला मैं उसे वैसे ही बांटता जाऊंगा। तो उसने चलते-चलते हरि बोल जपना शुरू कर दिया और अपने घर की तरफ चलने लगा। चलते-चलते घड़ा इतना भारी होने लगा कि वह एक पग भी आगे न चल सका। बहुत कोशिश के बाद भी वह न चल सका।
वह रुका, घड़ा जमीन पर रखा और ढक्कन खोल कर देखा तो वह पूरा सोने और चांदी से भरा हुआ था। मजे की बात यह कि उसने यह नहीं देखा कि उसके पास इतना कुछ है। वह सोचने लगा कि इस साधु ने इस घड़े को ही हाथ लगाया और इस घड़े की कीमत इतनी बढ़ गई। अगर वह साधु मुझे छू देगा तो क्या होगा ? यानी मेरी कीमत कितनी बढ़ जाएगी और मेरा जीवन धन्य हो जाएगा। उसने एकदम से वह घड़ा नीचे फेंका और महाप्रभु के पीछे भागने लगा। वह महाप्रभु के पास पहुंच गया और उनके साथ रहकर हरि नाम संकीर्तन का प्रचार करने लगा। यह सब साधु-संगति में रहने से मिलता है। इससे हमें यह ज्ञान मिलता है कि हमे सदैव साधु-संगत और वैष्णव संगत में बैठना चाहिए।