गुरुदेव श्री श्री रवि शंकर- हम पर्यावरण की परवाह क्यों नहीं करते ?

Edited By Updated: 05 Jun, 2025 10:07 AM

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Environment day 2025: क्या कोई ऐसा विकास भी हो सकता है जो जीवन को ही निगल जाए ? असली सवाल यह है कि हमारा विकास किसके लिए है ? क्या वह जीवन को सहारा दे रहा है, या उसे धीरे-धीरे मिटा रहा है ?

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Environment day 2025: क्या कोई ऐसा विकास भी हो सकता है जो जीवन को ही निगल जाए ? असली सवाल यह है कि हमारा विकास किसके लिए है ? क्या वह जीवन को सहारा दे रहा है, या उसे धीरे-धीरे मिटा रहा है ?

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विकास आवश्यक है लेकिन अगर उसकी दृष्टि संकीर्ण हो, अगर वह केवल तात्कालिक लाभ तक सीमित रह जाए, तो वही विकास विनाश का कारण बन जाता है। जब तक प्रकृति के प्रति करुणा और सम्मान विकास की दिशा का हिस्सा नहीं बनते, तब तक वह अधूरा और एकतरफा ही रहता है। प्राचीन संस्कृतियों में प्रकृति को पूजनीय माना गया। नदियां, पर्वत, वृक्ष, सूर्य, चंद्रमा सभी हमारे जीवन के अभिन्न अंग थे, हमसे अलग नहीं थे। जब श्रद्धा जाती है, तो शोषण शुरू होता है।

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वास्तव में पर्यावरण के संतुलन को सबसे अधिक हानि मानव की अतृप्त लालसा ने पहुंचाई है। लालच व्यक्ति को प्रकृति के प्रति असंवेदनशील बना देता है। जब मनुष्य केवल अपने तात्कालिक स्वार्थ में उलझा हो, तो पर्यावरण की रक्षा उसके लिए कोई प्राथमिकता नहीं रह जाती। एक ऐसा मन, जो लालच और चिंता से भरा हो, पृथ्वी से जुड़ाव अनुभव ही नहीं कर पाता इसलिए हमें बाहर से नहीं, भीतर से शुरुआत करनी होगी।

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जब तक समाज तनाव, अशांति और हिंसा से भरा रहेगा, तब तक पर्यावरण संवेदनशीलता सतही ही रहेगी। जो मन भीतर से शांत होता है, संतुष्ट होता है, वही मन प्रकृति के प्रति सच में संवेदनशील बनता है। भीतर की यह मौनता जीवन के प्रति गहरी जागरूकता लाती है। यह उदासीनता नहीं, अपितु यह एक सहभागिता है।

हमें फिर से प्रकृति के प्रति वही श्रद्धा जगानी होगी। जिस नदी को आप पवित्र मानते हैं, उसे आप प्रदूषित नहीं कर सकते। जिस वृक्ष को आप पूज्य समझते हैं, उसे आप काट नहीं सकते। जिस वस्तु को आप पवित्र मानते हैं, उसकी रक्षा आप स्वाभाविक रूप से करते हैं। उसके साथ आपका व्यवहार श्रद्धा से भरा होता है और वह पूरी जागरूकता से होता है।

आज जब हम पेड़ों को केवल भूमि की जगह के रूप में देखने लगे हैं, तो उनका कटना सामान्य लगने लगा है लेकिन सच यह है कि पेड़ हमारे फेफड़ों का ही विस्तार हैं। उन्हें काटना, अपने ही जीवन को घोंटना है।

इसलिए ‘आर्ट ऑफ लिविंग संस्था लगातार वृक्षारोपण को प्रोत्साहित कर रही है। अब तक 10 करोड़ से भी अधिक पेड़ हमारे स्वयंसेवकों द्वारा लगाए जा चुके हैं अगर एक पेड़ कहीं कटे, तो हमें उसके स्थान पर कम से कम पांच और लगाने चाहिए।

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प्रकृति से हम बहुत कुछ सीख सकते हैं। जंगल में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता। हर चीज़ पुनः उपयोग में आ जाती है। यहां तक कि शिकारी और शिकार के बीच भी एक संतुलन होता है। केंचुए को ही देखिए। मिट्टी में रहने वाला यह जीव कचरे को पचाकर उपजाऊ खाद बना देता है। यही प्रकृति का तरीका है जीवन को टिकाए रखने का।

प्राचीन वैदिक कृषि पद्धतियां, जिन्हें आज प्राकृतिक खेती कहा जाता है, भी इसी सोच पर आधारित हैं। यह खेती खेत में ही उपलब्ध संसाधनों और जैविक अपशिष्टों को प्रयोग कर उर्वरता बढ़ाती है जैसे - मल्चिंग की प्रक्रिया जिसमें पराली को जलाने के बजाय खेत में ही मिलाया जाता है। इससे न केवल मिट्टी उपजाऊ बनती है, बल्कि पर्यावरण भी सुरक्षित रहता है। इससे किसान का खर्च घटता है, उपज बढ़ती है और और यह पर्यावरण के लिए भी अच्छा है।

हम सबको अपने आप से यह सवाल पूछना चाहिए। इन 80–90 वर्षों के जीवनकाल में, हमने धरती से कितना लिया और उसके संरक्षण के लिए कितना लौटाया ? क्या हम केवल उपभोग करने आए हैं या कुछ लौटाने का भी इरादा है ?

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