महाभारत: शुभ कर्म करने से पहले इस नीति को करें Follow, मिलेगा बड़ा लाभ

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 04 Jul, 2024 07:37 AM

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महापुरुषों का कथन है कि शुभ कार्य शीघ्रता से करें लेकिन अशुभ कार्य को निरंतर टालते रहें। ऐसा करने में ही मनुष्य की भलाई है। शुभ कार्य को शीघ्रता से करने में सबसे बड़ा लाभ यह है कि अच्छा कार्य सम्पन्न होने पर

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Mahabharata: महापुरुषों का कथन है कि शुभ कार्य शीघ्रता से करें लेकिन अशुभ कार्य को निरंतर टालते रहें। ऐसा करने में ही मनुष्य की भलाई है। शुभ कार्य को शीघ्रता से करने में सबसे बड़ा लाभ यह है कि अच्छा कार्य सम्पन्न होने पर मनुष्य पर ईश्वर प्रसन्न होते हैं, उस पर अपनी कृपा की वर्षा करते हैं। अच्छा कर्म करने वाला अच्छी यानी उत्तम योनि में जन्म लेता है। भगवान को प्रिय होने के कारण भगवान की भक्ति प्राप्त करता है और आवागमन के दुष्चक्र से छूट जाता है। शुभ कर्म को करने में आलस्य किया जाए तो संभव है कि वह कार्य होने से रह जाए। शुभ कार्य का न होना मनुष्य के लिए सबसे बड़ी हानि का सबब हो जाएगा।

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इसी प्रकार अशुभ कार्य को करने में जितना विलम्ब हो सके, उतना करना चाहिए। अशुभ कर्म मनुष्य के लिए हानिकारक एवं पीड़ादायक होता है। अशुभ कार्य करने पर प्रभु नाराज होते हैं और उसका बुरा फल मिलता है। मनुष्य को नीच योनि में जन्म मिलता है और दुख का भागी बनता है तथा आवागमन के चक्कर में घूमता रहता है। इसलिए अच्छा यही होगा कि मनुष्य अशुभ कर्मों से बचे। अशुभ कार्य करने में विलम्ब का लाभ यह होता है कि वह कर्म होने से रह जाएगा और मनुष्य घोर विपत्ति से बच जाएगा। विलम्ब होने पर मनुष्य का विचार बदल सकता है क्योंकि हर समय मनुष्य की बुद्धि एक समान नहीं रहती। वह कभी सतोगुण एवं रजोगुण में तथा कभी तमोगुण में रहता है।

तमोगुण एवं रजोगुण में ही मनुष्य अशुभ कर्म करने की बात सोचता है। सत्वगुण में प्रविष्ट होने पर उसके विचार सात्विक हो जाते हैं और वह अच्छा कर्म करने की बात पर विचार करता है। सोच के अनुसार ही मनुष्य अच्छा अथवा बुरा कर्म करता है। उपरोक्त दोनों बातें दो प्रसंगों से सिद्ध होती हैं।

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महाभारत काल का प्रसंग है। एक बार धर्मराज युधिष्ठिर के पास कोई ब्राह्मण याचना करने आया। महाराज युधिष्ठिर उस समय राज्य के किसी महत्वपूर्ण कार्य में अत्यंत व्यस्त थे। इसलिए उन्होंने विनम्रतापूर्वक याचना करने वाले ब्राह्मण से कहा, ‘‘भगवन! आप कल पधारें, आपको अभीष्ट वस्तु प्रदान कर दी जाएगी।’’

ब्राह्मण तो चला गया किन्तु महाराज युधिष्ठिर के छोटे भाई भीमसेन जो उस समय इस बात को सुन रहे थे, अपने आसान से उठे और बाहर जाकर राजसभा के द्वार पर रखी हुई दुन्दुभि बजाने लगे। उन्होंने सेवकों को भी मंगलवाद्य बजाने की आज्ञा दे दी। असमय में मंगलवाद्य बजने की आवाज सुनकर धर्मराज ने अपने सेवक से पूछा, ‘‘आज इस समय मंगलवाद्य क्यों बज रहे हैं?’’

सेवक ने दूसरे सेवकों से पता लगाकर युधिष्ठिर जी महाराज को बताते हुए कहा,  ‘‘भीमसेन जी ने ऐसा करने की आज्ञा दी है और वह स्वयं भी दुन्दुभि बजाने में व्यस्त हैं।’’

भीमसेन को बुलाकर दुन्दुभि बजाने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा, ‘‘महाराज आपने आज काल को जीत लिया है, इससे बड़ा मंगल का समय और क्या हो सकता है?’’

‘‘मैंने काल को जीत लिया है।’’ युधिष्ठिर महाराज चकित होकर बोले। 

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भीमसेन ने बात को स्पष्ट करते हुए कहा, ‘‘महाराज! सारा विश्व जानता है कि आपके मुख से हंसी में भी झूठी बात नहीं निकलती। आपने आज याचक ब्राह्मण को अभीष्ट दान कल देने की बात कही है। इसलिए कम से कम कल तक तो अवश्य काल पर आपका अधिकार हो ही गया है।’’

अब युधिष्ठिर जी महाराज को अपनी भूल का एहसास हुआ। उन्होंने कहा, ‘‘भैया भीम! तुमने आज मुझे सावधान कर दिया है। यथासंभव पुण्य कार्य मनुष्य को तत्काल करना चाहिए। उसे स्थगित करना समझदारी नहीं है। तुम उस ब्राह्मण देवता को इसी समय बुलाओ।’’

याचक ब्राह्मण को उसी समय बुलवाया और उसे समुचित दान देकर अपनी भूल का परिमार्जन किया युधिष्ठिर जी ने। संस्कृत में एक सूक्ति है-शुभस्य शीघ्रम्, अशुभस्य कालहरणम् अर्थात शुभ कार्य को जितना जल्दी हो सके कर डालें लेकिन अशुभ कार्य को निरंतर टालते रहें।

विचारणीय बात यह है कि यदि हम तत्क्षण किसी की मदद करने के लिए आगे आ जाते हैं तो उसकी मदद हो जाती है और एक नेक काम भी लेकिन वह क्षण बीत गया तो संभव है हम उस अच्छे कार्य को करने के लिए जीवित ही न रहें अथवा हमारा विचार ही बदल जाए।

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