Srimad Bhagavad Gita- कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यों से कोई भौतिक फल प्रकट नहीं होता

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 30 Sep, 2023 09:47 AM

srimad bhagavad gita

अनुवाद एवं तात्पर्य : योगीजन आसक्ति रहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इंद्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।

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श्रीमद्भगवद्गीता यथारूप साक्षात स्पष्ट ज्ञान का उदाहरण भगवद्गीता --स्वामी प्रभुपाद

कायेन मनसा बुद्धया केवलैरिन्द्रियैरपि। योगिन: कर्म कुर्वन्ति सङ्गं त्यक्त्वात्मशुद्धये॥5.11॥

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अनुवाद एवं तात्पर्य : योगीजन आसक्ति रहित होकर शरीर, मन, बुद्धि तथा इंद्रियों के द्वारा भी केवल शुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
जब कोई कृष्ण की इंद्रिय तृप्ति के लिए शरीर, मन, बुद्धि अथवा इंद्रियों द्वारा कर्म करता है, तो वह भौतिक कल्मष से मुक्त हो जाता है। कृष्णभावनाभावित व्यक्ति के कार्यों से कोई भौतिक फल प्रकट नहीं होता। अत: सामान्य रूप से सदाचार कहे जाने वाले शुद्ध कर्म कृष्णभावनामृत में रहते हुए सरलता से स पन्न किए जा सकते हैं। श्रील रूप गोस्वामी ने भक्तिरसामृत सिंधु में (1.2.187) इसका वर्णन इस प्रकार किया है :

ईहा यस्य हरेर्दास्ये कर्मणा मनसा गिरा। निखिलास्वप्यवस्थासु जीवन्मुक्त: स उच्यते॥

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‘‘अपने शरीर, मन, बुद्धि तथा वाणी से कृष्णभावनामृत में कर्म करता हुआ (कृष्णसेवा में) व्यक्ति इस संसार में भी मुक्त रहता है, भले ही वह तथाकथित अनेक भौतिक कार्यकलापों में व्यस्त क्यों न रहे।’’

उसमें अहंकार नहीं रहता क्योंकि वह यह विश्वास नहीं करता कि वह भौतिक शरीर है अथवा यह शरीर उसका है। वह स्वयं कृष्ण का है और उसका यह शरीर भी कृष्ण की संपत्ति है। जब वह शरीर, मन, बुद्धि, वाणी, जीवन, संपत्ति आदि से उत्पन्न प्रत्येक वस्तु को, जो भी उसके अधिकार में है, कृष्ण की सेवा में लगता है तो वह तुरंत कृष्ण से जुड़ जाता है। वह कृष्ण से एकाकार हो जाता है और उस अहंकार से रहित होता है, जिसके कारण मनुष्य सोचता है कि मैं शरीर हूं। यही कृष्णभावनामृत की पूर्णावस्था है।

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