Edited By Prachi Sharma,Updated: 28 Dec, 2025 03:56 PM

वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥8.28॥
अनुवाद : जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले...
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वेदेषु यज्ञेषु तप:सु चैव दानेषु यत्पुण्यफलं प्रदिष्टम्।
अत्येति तत्सर्वमिदं विदित्वा योगी परं स्थानमुपैति चाद्यम्॥8.28॥
अनुवाद : जो व्यक्ति भक्तिमार्ग स्वीकार करता है, वह वेदाध्ययन, तपस्या, दान, दार्शनिक तथा सकाम कर्म करने से प्राप्त होने वाले फलों से वंचित नहीं होता। वह मात्र भक्ति सम्पन्न करके इन समस्त फलों की प्राप्ति करता है और अंत में परम नित्यधाम को प्राप्त होता है।
तात्पर्य : यह श्लोक सातवें तथा आठवें अध्यायों का उपसंहार है जिनमें कृष्णभावनामृत तथा भक्ति का विशेष वर्णन है। मनुष्य को अपने गुरु के निर्देशन में वेदाध्ययन करना होता है उन्हीं के आश्रम में रहते हुए तपस्या करनी होती है। ब्रह्मचारी को गुरु के घर में एक दास की भांति रहना पड़ता है और द्वार-द्वार भिक्षा मांग कर गुरु के पास लानी होती है। उसे गुरु के आदेश पर ही भोजन करना होता है। ब्रह्मचर्य पालन के ये कुछ वैदिक नियम हैं।
वेदों का अध्ययन मनोधर्मियों के मनोरंजन के लिए नहीं, अपितु चरित्र निर्माण के लिए है। इस प्रशिक्षण के बाद ब्रह्मचारी को गृहस्थ जीवन में प्रवेश करके विवाह करने की अनुमति दी जाती है। गृहस्थ के रूप में उसे अनेक यज्ञ करने होते हैं जिससे वह आगे उन्नति कर सके।
गृहस्थ जीवन के बाद वानप्रस्थ आश्रम ग्रहण करना पड़ता है जिसमें उसे जंगल में रहते हुए वृक्ष की छाल पहन कर तथा और कर्म आदि किए बिना कठिन तपस्या करनी होती है। इस प्रकार मनुष्य ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रमों का पालन करते हुए जीवन की सिद्धावस्था को प्राप्त होता है तब इनमें से कुछ स्वर्गलोक को जाते हैं और यदि वे और अधिक उन्नति करते हैं तो अधिक उच्चलोकों को या तो निॢवशेष ब्रह्मज्योति को या वैकुंठलोक या
कृष्णलोक को जाते हैं।
सातवें अध्याय से लेकर बारहवें अध्याय भगवद्गीता के सार रूप हैं। प्रथम छह अध्याय तथा अंतिम छह अध्याय इन मध्यवर्ती छहों अध्यायों के लिए आवरण मात्र हैं जिनकी सुरक्षा भगवान करते हैं। यदि कोई गीता के इन छह अध्यायों को भक्त की संगति में भलीभांति समझ लेता है तो उसका जीवन समस्त तपस्याओं, यज्ञों, दानों, चिंतनों को पार करके महिमा मंडित हो उठेगा क्योंकि केवल कृष्ण भावनामृत के द्वारा इसे इतने कर्मों का फल प्राप्त हो जाता है।
मनुष्य को चाहिए कि वह किसी भक्त से भगवद्गीता पढ़े, मनोधर्मियों से नहीं। भक्त की संगति से भक्ति आती है और भक्ति के कारण कृष्ण या ईश्वर तथा कृष्ण के कार्यकलापों, उनके रूपों, नाम, लीलाओं आदि से संबंधित सारे भ्रम दूर हो जाते हैं। आगे बढऩे पर वह कृष्ण के प्रेम में पूर्णतया अनुरक्त हो जाता है। यह जीवन की सर्वोच्च सिद्ध अवस्था है जिससे भक्त कृष्ण के धाम, गोलोक वृंदावन को प्राप्त होता है जहां वह नित्य सुखी रहता है। इस प्रकार श्रीमद्भगवद् गीता के आठवें अध्याय ‘भगवत्प्राप्ति’ का भक्ति वेदांत तात्पर्य पूर्ण हुआ।