अमेरिका के बाद अब कनाडा में जातिगत भेदभाव के खिलाफ मुहिम

Edited By DW News,Updated: 10 Mar, 2023 12:42 PM

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अमेरिका के बाद अब कनाडा में जातिगत भेदभाव के खिलाफ मुहिम

टोरंटो का स्कूल बोर्ड शहर के स्कूलों में जाति आधारित भेदभाव की मौजूदगी को स्वीकार करने वाला कनाडा का पहला स्कूल बोर्ड बन गया है. बोर्ड ने स्थानीय मानवाधिकार संस्था से इस मुद्दे का सामना करने की रूपरेखा बनाने को कहा है.टोरंटो के डिस्ट्रिक्ट स्कूल बोर्ड में इस विषय पर एक प्रस्ताव बोर्ड के ट्रस्टियों में से एक यालिनी राजकुलसिंघम ले कर आई थीं. छह ट्रस्टियों ने प्रस्ताव के पक्ष में मतदान किया और पांच ने उसके खिलाफ, जिसके बाद प्रस्ताव पारित हो गया. राजकुलसिंघम का कहना है, "यह प्रस्ताव विभाजन के बारे में नहीं है, यह घाव भरने वाले और सशक्त करने वाले समुदाय बनाने के बारे में है और उन्हें सुरक्षित स्कूल देने के बारे में है जो छात्रों का अधिकार है." उन्होंने स्कूल बोर्ड और ओंटारियो के मानवाधिकार आयोग के बीच साझेदारी की मांग की. अमेरिका के बाद कनाडा की बारी यह कनाडा में रहने वाले दक्षिण एशियाई मूल के- विशेष रूप से भारतीय और हिंदू समुदाय के - लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण मुद्दा है. इससे पहले अमेरिका में भी इस सवाल को कानूनी तौर पर उठाया गया है. कुछ ही दिनों पहले अमेरिकी शहर सिएटल के सिटी काउंसिल ने शहर में जाति आधारित भेदभाव को गैर कानूनी घोषित किया था. पारित हुए प्रस्ताव के तहत शहर में रोजगार, आवास, सार्वजनिक यातायात और दुकानों में भी जाति आधारित भेदभाव पर प्रतिबंध लगा दिया गया है. सिएटल ऐसा करने वाला पहला अमेरिकी शहर बन गया था. वहां इससे जुड़े प्रस्ताव को काउंसिल की भारतीय-अमेरिकी मूल की सदस्य क्षमा सावंत ले कर आई थीं. सावंत का कहना था कि सिएटल और अमेरिका के कई दूसरे शहरों में दक्षिण एशियाई अमेरिकी लोगों और दूसरे आप्रवासी लोगों को इस भेदभाव का सामना करना पड़ता है. स्वागत और विरोध उन्होंने कहा था, "वॉशिंगटन में 1,67,000 से भी ज्यादा दक्षिण एशियाई लोग रहते हैं. उनमें से भी ज्यादातर लोग ग्रेटर सिएटल इलाके में बसे हुए हैं. ऐसे में इस इलाके को जाति आधारित भेदभाव का सामना करना चाहिए और उसे अदृश्य और असंबोधित नहीं रहने देना चाहिए." भारत और अमेरिका दोनों ही देशों में इस मुहिम को लेकर दलित ऐक्टिविस्ट उत्साहित महसूस कर रहे हैं और चाहते हैं कि यह अभियान और शहरों में भी फैलना चाहिए. हालांकि कई लोग इसका विरोध भी कर रहे हैं और कह रहे हैं कि भारत से बाहर जाति आधारित भेदभाव साबित करने के लिए और शोध की जरूरत है. (रॉयटर्स, एएफपी से इनपुट के साथ)

यह आर्टिकल पंजाब केसरी टीम द्वारा संपादित नहीं है, इसे DW फीड से ऑटो-अपलोड किया गया है।

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