अब 70 घंटे काम करने की तैयारी करो, नहीं तो सरकारी नौकरी कर लो: गूगल के पूर्व CEO की चेतावनी

Edited By Updated: 30 Sep, 2025 09:05 AM

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आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दौड़ में अगर अमेरिका को चीन से आगे रहना है, तो वहां की टेक कंपनियों को अपने काम के तौर-तरीकों में बड़ा बदलाव लाना होगा - ऐसा मानना है गूगल के पूर्व सीईओ एरिक श्मिट का। हाल ही में उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा, "अगर...

नेशनल डेस्क: आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की दौड़ में अगर अमेरिका को चीन से आगे रहना है, तो वहां की टेक कंपनियों को अपने काम के तौर-तरीकों में बड़ा बदलाव लाना होगा - ऐसा मानना है गूगल के पूर्व सीईओ एरिक श्मिट का। हाल ही में उन्होंने हल्के-फुल्के अंदाज़ में कहा, "अगर वर्क-लाइफ बैलेंस चाहिए तो सरकारी नौकरी कर लो, टेक इंडस्ट्री में तो अब 70 घंटे काम करने की तैयारी करो।"

हालांकि ये बयान मजाकिया अंदाज़ में दिया गया था, लेकिन इसके पीछे की सच्चाई बेहद गंभीर है। एक समय पर ‘आरामदायक दफ्तरों’ और ‘फ्लेक्सिबल शेड्यूल’ के लिए जानी जाने वाली टेक इंडस्ट्री अब तेजी से काम के घंटों को बढ़ा रही है। अब खुले तौर पर यह कहा जाने लगा है कि अगर AI और तकनीक में चीन को पछाड़ना है, तो अमेरिकी कंपनियों को भी उतनी ही मेहनत करनी होगी - जितनी चीन की कंपनियों में होती है।

अमेरिका में भी 996 कल्चर की दस्तक
चीन में प्रचलित ‘996 कल्चर’ - यानी सुबह 9 से रात 9 बजे तक, हफ्ते में 6 दिन काम - को पहले कठोर और अत्यधिक कहा जाता था। लेकिन अब यही कल्चर अमेरिका की सिलिकॉन वैली में आदर्श की तरह देखा जा रहा है। कुछ जॉब विज्ञापनों में तो साफ़ तौर पर लिखा है कि हफ्ते में 70 घंटे से ज्यादा काम करना होगा। इस बदलाव के पीछे वजह है आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस की होड़, जहां अरबों डॉलर का निवेश दांव पर लगा है। टेक कंपनियां — चाहे वे बड़ी हों या स्टार्टअप्स - अब कर्मचारियों से उम्मीद कर रही हैं कि वे व्यक्तिगत जीवन को पीछे छोड़ दें और केवल लक्ष्य की ओर दौड़ें। इसे अब ‘हसल कल्चर’ कहा जा रहा है, जहां थकान को ‘बैज ऑफ ऑनर’ माना जाता है।

भारत में भी सुनाई देने लगी है आवाज़
अमेरिका और चीन की इस प्रतिस्पर्धा की गूंज अब भारत तक पहुंच चुकी है। बेंगलुरु, हैदराबाद और गुरुग्राम जैसे टेक हब्स में भी कंपनियों ने काम के घंटे बढ़ा दिए हैं। अब कर्मचारी अक्सर 60 से 70 घंटे सप्ताह में काम कर रहे हैं - बिना किसी औपचारिक घोषणा के, लेकिन स्पष्ट अपेक्षाओं के साथ।

इस चर्चा को और हवा मिली थी जब 2023 में इंफोसिस के सह-संस्थापक नारायण मूर्ति ने युवाओं से अपील की थी कि भारत को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें हफ्ते में 70 घंटे काम करना चाहिए। फिर जनवरी 2025 में L&T के चेयरमैन एसएन सुब्रमण्यन ने भी रविवार को काम करने और 90 घंटे सप्ताहिक कार्य का समर्थन किया था। तब देशभर में बहस छिड़ गई थी — कि क्या यह ‘देशभक्ति’ है या आधुनिक दौर की ‘गुलामी’? लेकिन अब यह बहस ज़मीन पर उतरने लगी है, जहां टेक इंडस्ट्री के अंदर काम के घंटे लगातार खिंचते जा रहे हैं।

टेक्नोलॉजी का भविष्य बनाम मानव श्रम
AI के क्षेत्र में बढ़ती प्रतिस्पर्धा ने कामकाजी दुनिया की परिभाषा ही बदल दी है। श्मिट के बयान इस ओर संकेत करते हैं कि आने वाले समय में नौकरी और काम का मतलब सिर्फ ‘जॉब’ नहीं रह जाएगा, बल्कि एक ‘जुनून’ और लगातार ‘परफॉर्मेंस प्रेशर’ का मैदान बन जाएगा। जहां एक ओर अमेरिका और चीन काम के घंटों को बढ़ाकर टेक्नोलॉजी में वर्चस्व की होड़ में जुटे हैं, वहीं भारत जैसे देशों के सामने सवाल खड़ा हो गया है — क्या हम भी इस दौड़ में अपनी वर्क कल्चर और कर्मचारियों की भलाई को कुर्बान करने के लिए तैयार हैं?

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