भारत में मीडिया दमन की अफवाहें झूठीः सोशल मीडिया बना देश का नया ‘लोक मंच’, हर नागरिक एक पत्रकार

Edited By Updated: 08 Oct, 2025 05:21 PM

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भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर बढ़ती आलोचनाओं के बीच यह रिपोर्ट बताती है कि भारत का मीडिया परिदृश्य पहले से अधिक जीवंत और विविध हो चुका है। डिजिटल प्लेटफॉर्म और नागरिक पत्रकारिता ने पुराने मीडिया ढांचे को चुनौती दी है।सोशल मीडिया ने हर नागरिक...

International Desk: हाल के वर्षों में, आई कई झूठी विदेशों रिपोर्टों  के आधार पर आलोचक यह तर्क देते रहे हैं कि भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता खतरे में है। अंतर्राष्ट्रीय रिपोर्टें “प्रेस फ्रीडम” रैंकिंग में भारत को नीचे दिखाती हैं, और सोशल मीडिया पर यह नैरेटिव गढ़ा जा रहा है कि असहमति की आवाज़ों को दबाया जा रहा है। लेकिन जब इस बहस से आगे बढ़कर भारत के विशाल और विविध सूचना परिदृश्य को देखा जाए तो एक बिलकुल अलग और जीवंत तस्वीर सामने आती है।

 

भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता न केवल जीवित है, बल्कि पहले से कहीं ज़्यादा सशक्त और जनोन्मुख हो चुकी है।यह वह दौर है जब हर व्यक्ति, हर भाषा, हर वर्ग अपनी बात कह सकता है-और यही लोकतंत्र की असली परिभाषा है। भारत आज उन चुनिंदा लोकतांत्रिक देशों में से एक है जहां सूचना का पारिस्थितिकी तंत्र सबसे बहुआयामी, सक्रिय और प्रतिस्पर्धी है। देश में पहले कभी इतने विविध दृष्टिकोण और आवाज़ें एक साथ नहीं सुनी गईं कहीं सरकार के पक्ष में तो कहीं उसके खिलाफ, और बीच में तमाम नए विचार।

 

भारत का मीडिया विविधता का महासागर

  • भारत का मीडिया किसी एक स्वर में नहीं बोलता। यह एक बहुभाषी और बहुआयामी मोज़ेक है।
  • सैकड़ों न्यूज़ चैनल, हज़ारों अख़बार और तेज़ी से बढ़ता डिजिटल मीडिया रोज़ाना एक-दूसरे से प्रतिस्पर्धा करते हैं।
  • कहीं सरकार की नीतियों की तारीफ होती है तो कहीं तीखी आलोचना सब एक ही टीवी डायल या मोबाइल स्क्रीन पर।

 

पुराने मीडिया युग की नॉस्टेल्जिया और नई हकीकत
कई आलोचक, जो “प्रेस की गिरती स्वतंत्रता” की बात करते हैं, दरअसल उस दौर के हैं जब कुछ अख़बार और चैनल ही जनमत तय करते थे। उनकी संपादकीय लाइनें ही “सत्य” मानी जाती थीं  और उनकी गलतियां भी चुनौती से परे थीं।अब वह दौर खत्म हो चुका है। डिजिटल मीडिया और सिटिजन जर्नलिज़्म ने सत्ता के इन पुराने ढांचों को तोड़ दिया है। अब दर्शक और पाठक खुद पत्रकारों से सवाल करते हैं, फैक्ट-चेक करते हैं, और मीडिया को जवाबदेह बनाते हैं।

 

परिवर्तन को दबाव समझना भूल 
कुछ लोग इस बदलाव को “दमन” या “दबाव” के रूप में देखते हैं, जबकि असल में यह लोकतांत्रिक नवजीवन का प्रतीक है।जब पुराने मीडिया घराने अपना प्रभाव खोते हैं और नए, ज़मीनी स्वर उभरते हैं तो पुरानी अभिजात्य वर्ग इसे “पतन” समझता है।लेकिन वास्तव में यह विविधता और नए दृष्टिकोणों का विस्तार है।

 

सोशल मीडिया भारत का नया सार्वजनिक मंच

  • पिछले दशक में सोशल मीडिया ने भारत की अभिव्यक्ति को नई ऊंचाई दी है।
  • अब X (ट्विटर), इंस्टाग्राम और यूट्यूब जैसे प्लेटफ़ॉर्म भारत के असली "पब्लिक स्क्वायर" बन गए हैं।
  • एक किसान पंजाब से अपने खेत की समस्या पर वीडियो डाल सकता है।
  • एक एक्टिविस्ट तमिलनाडु से पर्यावरण पर अभियान चला सकता है।
  • और एक कॉमेडियन मुंबई से लाखों लोगों तक अपनी बात पहुंचा सकता है बिना किसी संपादक की अनुमति के।
  •  यानी, जो आवाजें पहले कभी नहीं सुनी जाती थीं, अब वे केंद्र में हैं।

 

असहमति नहीं, सहभागिता
बेशक, यह नई खुली दुनिया शोर, ध्रुवीकरण और अफवाहों की समस्या भी लाती है लेकिन ये वैश्विक लक्षण हैं, भारतीय नहीं। जिन देशोें से भारत पर “प्रेस फ्रीडम” की आलोचना होती है, वे खुद “कैंसल कल्चर”, एल्गोरिदमिक पक्षपात, और मिसइन्फॉर्मेशन जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। कुछ कॉमेडियन या कलाकारों को आलोचना झेलनी पड़ती है, लेकिन इसे “राज्य दमन” कहना असत्य और अतिरंजित है। हर लोकतंत्र में व्यंग्य, आलोचना और जवाबी प्रतिक्रिया का यही चक्र चलता है।
यही विचारों का लोकतांत्रिक टकराव भारत को जीवंत बनाता है।
  

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