Edited By Niyati Bhandari,Updated: 25 Jan, 2021 07:03 AM
आज पौष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि है। इस दिन को ‘कूर्म द्वादशी’ के नाम से जाना जाता है। कूर्म द्वादशी पर भगवान् विष्णु ने ‘कूर्म’ अथवा ‘कच्छप’ अवतार लेकर देवताओं और दानवों की समुद्र मंथन के
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Kurma Dwadashi 2021: आज पौष मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि है। इस दिन को ‘कूर्म द्वादशी’ के नाम से जाना जाता है। कूर्म द्वादशी पर भगवान् विष्णु ने ‘कूर्म’ अथवा ‘कच्छप’ अवतार लेकर देवताओं और दानवों की समुद्र मंथन के समय सहायता की थी। ऐसी मान्यता है कि जो जीव इस दिन श्रद्धा भाव से कूर्म अवतार की कथा पढ़ता है, उसे सभी पापों से मुक्ति मिलती है और साथ ही मोक्ष की प्राप्ति होती है।
Kurma dwadashi vrat katha: हिंदू ग्रंथों के अनुसार एक समय की बात है ऐरावत हाथी पर भ्रमण करते हुए देवराज इंद्र से मार्ग में महर्षि दुर्वासा मिले। उन्होंने इंद्र पर प्रसन्न होकर उन्हें अपने गले की पुष्पमाला प्रसाद रूप में प्रदान की। इंद्र ने उस माला को ऐरावत के मस्तक पर डाल दिया और ऐरावत ने अपनी सूंड से उसे नीचे गिरा कर पैरों से कुचल दिया। अपने प्रसाद का अपमान देख कर महर्षि दुर्वासा ने इंद्र को श्रीभ्रष्ट होने का शाप दे दिया। महर्षि के शाप से श्रीहीन इंद्र दैत्यराज बलि से युद्ध में परास्त हो गए और दैत्यराज बलि का तीनों लोकों पर अधिकार हो गया।
हारकर देवता ब्रह्मा जी को साथ लेकर भगवान विष्णु जी की शरण में गए और इस घोर विपत्ति से मुक्ति दिलाने की प्रार्थना की। भगवान विष्णु ने कहा, ‘‘आप लोग दैत्यों से संधि कर लें और उनके सहयोग से मंदराचल को मथानी और वासुकि नाग को रस्सी बनाकर क्षीरसागर का मंथन करें। समुद्र से अमृत निकलेगा, जिसे पिलाकर मैं देवताओं को अमर बना दूंगा, तभी देवता दैत्यों को पराजित करके पुन: स्वर्ग प्राप्त कर सकेंगे।’’
इंद्र दैत्यराज बलि के पास गए और अमृत के लोभ से देवताओं और दैत्यों में संधि हो गई। देवताओं और दैत्यों ने मिल कर मंदराचल को उठाकर समुद्र तट की ओर ले जाने का प्रयास किया, किन्तु असमर्थ रहे। अंत में स्मरण करने पर भक्त भयहारी भगवान पधारे। उन्होंने खेल-खेल में भारी मंदराचल को उठाकर गरुड़ पर रख लिया और क्षण मात्र में क्षीर सागर के तट पर पहुंचा दिया।
मंदराचल की मथानी और वासुकि नाग की रस्सी बनाकर समुद्र मंथन प्रारंभ हुआ। भगवान ने मथानी को धंसते हुए देख कर स्वयं कच्छप रूप में मंदराचल को आधार प्रदान किया। मंथन से सबसे पहले विष प्रकट हुआ जिसकी भयंकर ज्वाला से सम्पूर्ण प्राणियों के प्राण संकट में पड़ गए। लोक कल्याण के लिए भगवान शंकर ने उसका पान किया। तदनंतर समुद्र से लक्ष्मी, कौस्तुभ मणि, पारिजात, पुष्प, सुरा, धन्वंतरि, चंद्रमा, पुष्पक विमान, ऐरावत हाथी, पाञ्चजन्य शंख, रम्भा अप्सरा, कामधेनु, उच्चै:श्रवा घोड़ा और अमृत कुम्भ निकले।
अमृत कुम्भ निकलते ही धन्वंतरि के हाथ से अमृत पूर्ण कलश छीन कर दैत्य लेकर भागे क्योंकि उनमें से प्रत्येक सबसे पहले अमृतपान करना चाहता था। कलश के लिए छीना झपटी चल रही थी और देवता निराश खड़े थे। अचानक वहां एक अद्वितीय सौंदर्यशालिनी नारी प्रकट हुई। असुरों ने उसके सौंदर्य से प्रभावित होकर उससे मध्यस्थ बनकर अमृत बांटने की प्रार्थना की। वास्तव में भगवान ने ही दैत्यों को मोहित करने के लिए मोहिनी रूप धारण किया था।
मोहिनीरूप धारी भगवान ने कहा, ‘‘मैं जैसे भी विभाजन का कार्य करूं, चाहे वह उचित हो या अनुचित-तुम लोग बीच में बाधा उपस्थित न करने का वचन दो, तभी मैं इस कार्य को करूंगी।’’
सभी ने इस शर्त को स्वीकार किया। देवता और दैत्य अलग-अलग पंक्तियों में बैठ गए। जिस समय भगवान मोहिनी रूप में देवताओं को अमृत पिला रहे थे, राहू धैर्य न रख सका। वह देवताओं का रूप धारण करके सूर्य चंद्रमा के बीच में बैठ गया। जैसे ही उसे अमृत का घूंट मिला, सूर्य चंद्रमा ने संकेत कर दिया। भगवान मोहिनी रूप का त्याग करके शंख चक्रधारी विष्णु हो गए और उन्होंने चक्र से राहू का मस्तक काट डाला। असुरों ने भी अपना शस्त्र उठाया और देवासुर-संग्राम प्रारंभ हो गया। अमृत के प्रभाव से तथा भगवान की कृपा से देवताओं की विजय हुई और उन्हें अपना स्वर्ग पुन: वापस मिला।