Edited By Niyati Bhandari,Updated: 02 Aug, 2023 08:44 AM
श्री भगवानुवाच- संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते
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Srimad Bhagavad Gita: श्री भगवानुवाच- संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ तयोस्तु कर्मसंन्यासात्कर्मयोगो विशिष्यते॥5.2॥
अनुवाद एवं तात्पर्य : श्री भगवान ने उत्तर दिया : मुक्ति के लिए तो कर्म का परित्याग तथा भक्तिमय कर्म (कर्मयोग) दोनों ही उत्तम हैं। किन्तु इन दोनों में से कर्म के परित्याग से भक्तियुक्त कर्म श्रेष्ठ है।
सकार कर्म (इंद्रितृप्ति में लगना) ही भवबंधन का कारण है। जब तक मनुष्य शारीरिक सुख का स्तर बढ़ाने के उद्देश्य से कर्म करता रहता है तब तक वह विभिन्न प्रकार के शरीरों में देहांतरण करते हुए भवबंधन को बनाए रखता है।
अत: यह ज्ञान ही (कि वह आत्मा है शरीर नहीं) मुक्ति के लिए पर्याप्त नहीं। जीवात्मा के स्तर पर मनुष्य को कर्म करना होगा अन्यथा भवबंधन से उबरने का कोई अन्य उपाय नहीं है किन्तु कृष्णभावनाभावित होकर कर्म करना सकाम कर्म नहीं। पूर्णज्ञान से युक्त होकर किए गए कर्म वास्तविक ज्ञान को बढ़ाने वाले हैं।
बिना कृष्णभावनाभावित कर्म कर्त्ता को स्वत: सकाम कर्म के फल से मुक्त बनाता है, जिसके कारण उसे भौतिक स्तर तक उतरना नहीं पड़ता। अत: कृष्णभावनाभावित कर्म संन्यास से सदा श्रेष्ठ होता है क्योंकि संन्यास में नीचे गिरने की संभावना बनी रहती है।
संन्यास तभी पूर्ण माना जाता है जब यह ज्ञात हो कि संसार की प्रत्येक वस्तु भगवान की है और कोई किसी भी वस्तु का स्वामित्व ग्रहण नहीं कर सकता। वस्तुत: मनुष्य को यह समझने का प्रयत्न करना चाहिए कि अपना कुछ भी नहीं है, तो फिर संन्यास का प्रश्न ही कहां उठता है? जो व्यक्ति यह समझता है कि सारी सम्पत्ति श्री कृष्ण की है, वह नित्य संन्यासी है।
प्रत्येक वस्तु कृष्ण की है, अत: उसका उपयोग कृष्ण के लिए किया जाना चाहिए। कृष्णभावनाभावित होकर इस प्रकार का पूर्ण कार्य करना मायावादी संन्यासी के कृत्रिम वैराग्य से कहीं उत्तम है।