Vijay Diwas 2020: भारत ने 13 दिनों में ही जीत ली थी 1971 की जंग, चटाई थी PAK को धूल

Edited By Seema Sharma,Updated: 16 Dec, 2020 01:08 PM

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साल 1971 की जंग में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी और पाकिस्तान के 90000 से भी अधिक सैनिकों को समर्पण करना पड़ा था। 16 दिसंबर 1971 इतिहास की वो तारीख है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह वही तारीख है जब भारत और पाकिस्तान युद्ध में भारत...

नेशनल डेस्कः साल 1971 की जंग में भारतीय सेना ने पाकिस्तान को करारी शिकस्त दी थी और पाकिस्तान के 90000 से भी अधिक सैनिकों को समर्पण करना पड़ा था। 16 दिसंबर 1971 इतिहास की वो तारीख है जिसे कभी भुलाया नहीं जा सकता। यह वही तारीख है जब भारत और पाकिस्तान युद्ध में भारत की सबसे बड़ी जीत हुई थी। 3 दिसंबर को पाकिस्तान ने भारत के 11 एयरफील्ड्स पर हमला किया था, जिसके बाद यह युद्ध शुरू हुआ और महज 13 दिन में ही भारतीय जांबाजों ने पाकिस्तान को खदेड़ दिया था। इस युद्ध में पाकिस्तान ने भारत का लोहा मानते हुए भारतीय सेना के आगे घुटने टेक दिए थे। तब से 16 दिसंबर का दिन ‘विजय दिवस’ के रूप में मनाया जाता है।

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ऐसे हुई युद्ध की शुरुआत
1971 के पहले बांग्लादेश, पाकिस्तान का ही एक हिस्सा था जिसको तब 'पूर्वी पाकिस्तान' कहते थे। वर्तमान पाकिस्तान को 'पश्चिमी पाकिस्तान' कहते थे। पाकिस्तानी सेना के अत्याचारों और कई सालों के संघर्ष के खिलाफ आखिरकार लोग सड़कों पर उतर आए। पाकिस्तानी सेना का 'पूर्वी पाकिस्तान' के लोगों के साथ मारपीट महिलाओं के साथ बलात्कार और खून-खराबे जैसे मामले बढ़ते जा रहे थे। बांग्लादेश के लोगों पर हो रहे अत्याचारों के खिलाफ भारत बांग्लादेशियों के बचाव में उतर आया।

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'मुक्ति वाहिनी' का गठन
पाकिस्तान के अत्याचारों से आजादी पाने के लिए 'मुक्ति वाहिनी' का गठन किया गया। 1969 में पाकिस्तान के तत्कालीन सैनिक शासक जनरल अयूब के खिलाफ 'पूर्वी पाकिस्तान' में असंतोष बढ़ गया था। बांग्लादेश के संस्थापक नेता शेख मुजीबुर रहमान के आंदोलन के दौरान 1970 में यह अपने चरम पर था। पाकिस्तानी सेना ने 25 मार्च 1971 को ढाका और आसपास के क्षेत्र में अनुशासनीय कार्रवाई शुरू कर दी। सबसे पहले 25-26 मार्च की रात को मुजीब-उर-रहमान को कैद करके पाकिस्तान ले जाया गया। अवामी लीग के कार्यकर्त्ता बिखरने शुरू हो गए। भारत सरकार ने अंतर्राष्ट्रीय बिरादरी को हस्ताक्षेप करने की जोरदार अपील की लेकिन कोई सार्थक प्रतिक्रिया न मिली। आखिर 27 मार्च 1971 को पाकिस्तानी सेना के विद्रोही सैन्य अधिकारी जिया-उर-रहमान (जो बाद में बंगलादेश के राष्ट्रपति बने) ने शेख मुजीब-उर-रहमान की ओर से बंगलादेश की स्वतंत्रता की घोषणा कर दी और बहुत से अर्द्धसैनिक बल बगावत करके मुक्ति वाहिनी में शामिल हो गए।

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अप्रैल में आक्रमण करना चाहती थीं इंदिरा गांधी
भारत पर दबाव पड़ने लगा कि वह अपनी सेना के जरिए वहां हस्तक्षेप करें। हालांकि तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी चाहती थीं कि अप्रैल में हमला किया जाए। इस बारे में इंदिरा गांधी ने थलसेनाध्‍यक्ष जनरल मानेकशॉ की राय ली। तब भारत के पास सिर्फ़ एक पर्वतीय डिवीजन था। इस डिवीजन के पास पुल बनाने की क्षमता नहीं थी और मानसून भी दस्तक देने ही वाला था। ऐसे समय में पूर्वी पाकिस्तान में प्रवेश करना मुसीबत मोल लेने जैसा था। मानेकशॉ ने सियासी दबाव में झुके बिना प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी से स्पष्ट कह दिया कि वे पूरी तैयारी के साथ ही युद्ध के मैदान में उतरना चाहते हैं। इस पर इंदिरा गांधी ने उनसे पूछा कितना समय लगेगा तब उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। इसके बाद 3 दिसंबर, 1971 को इंदिरा गांधी तत्कालीन कलकत्ता में एक जनसभा को संबोधित कर रही थीं। इसी दिन शाम के वक्‍त पाकिस्तानी वायुसेना के विमानों ने भारतीय वायुसीमा को पार करके पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर, आगरा आदि सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराना शुरू कर दिया। इंदिरा गांधी ने उसी वक्‍त दिल्ली लौटकर मंत्रिमंडल की आपात बैठक की। उन्होंने फिर से थलसेनाध्‍यक्ष जनरल मानेकशॉ को बुलाय। इस बार मानेकशॉ पूरी तैयारी में थे। उन्होंने इंदिरा गांधी को 14 दिन में लड़ाई खत्म का आश्वासन दिया हालांकि युद्ध 13 दिनों में ही खत्म हो गया।

 

13 दिन में भारत ने जीता युद्ध
13 दिन तक चले इस युद्ध दौरान भारत की सशस्त्र सेनाओं ने चमत्कारिक जीत हासिल की जिसके फलस्वरूप एक नए देश ‘बंगलादेश’ का सृजन हुआ। 14 दिसंबर को भारतीय सेना ने एक गुप्त संदेश को पकड़ा कि सुबह करीब 11 बजे ढाका के गवर्नमेंट हाउस में एक महत्वपूर्ण बैठक होने वाली है, जिसमें पाकिस्तानी प्रशासन बड़े अधिकारी भाग लेने वाले हैं। भारतीय सेना ने तय किया कि इसी समय उस भवन पर बम गिराए जाएं। बैठक के दौरान ही मिग 21 विमानों ने भवन पर बम गिरा कर मुख्य हॉल की छत उड़ा दी। गवर्नर मलिक ने लगभग कांपते हाथों से अपना इस्तीफा लिखा। 16 दिसंबर की सुबह जनरल जैकब को मानेकशॉ का संदेश मिला कि आत्मसमर्पण की तैयारी के लिए तुरंत ढाका पहुंचें।

 

शाम के साढ़े चार बजे भारतीय सेना के लैैफ्टिनैंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा हेलिकॉप्टर से ढाका हवाई अड्डे पर उतरे। अरोडा़ और पूर्वी पाकिस्तान की सेना के कमांडर लैफ्टिनैंट जनरल ए.ए.के. नियाजी एक मेज के सामने बैठे। पूर्वी पाकिस्तान की सेना के कमांडर लैफ्टिनैंट जनरल ए.ए.के. नियाजी ने अपनी सेना के लगभग 93,000 सैनिकों सहित 16 दिसंबर को भारतीय सेना के लैैफ्टिनैंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के समक्ष घुटने टेक दिए। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद यह पहला मौका था जब किसी देश की सशस्त्र सेना ने एक सीमित युद्ध के बाद इतनी भारी संख्या में प्रतिद्वंद्वी सेना के सामने आत्मसमर्पण किया हो। इंदिरा गांधी संसद भवन के अपने दफ्तर में एक टीवी इंटरव्यू दे रही थीं। तभी जनरल मानेक शॉ ने उन्‍हें बांग्लादेश में मिली शानदार जीत की ख़बर दी। इंदिरा गांधी ने लोकसभा में शोर-शराबे के बीच घोषणा की कि युद्ध में भारत को विजय मिली है। इंदिरा गांधी के बयान के बाद पूरा सदन जश्‍न में डूब गया।

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