King bharata story: आज भी इस कुंड में भगवान अपने भक्तों को देते हैं दर्शन, पढ़ें कथा

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 27 Jan, 2022 10:39 AM

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राजर्षि भरत भगवान ऋषभ देव के सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे। इनका विवाह विश्व रूप की

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Rajrishi bharat story: राजर्षि भरत भगवान ऋषभ देव के सौ पुत्रों में सबसे बड़े थे। इनका विवाह विश्व रूप की पञ्चजनी नामक कन्या से हुआ, उससे उन्होंने पांच पुत्र उत्पन्न किए। ये सब शास्त्रों के मर्मज्ञ, अपने पिता के समान धर्मपूर्वक प्रजा का पालन करने वाले तथा भगवान के भक्त थे। इन्होंने भगवान को प्रसन्न करने के लिए अनेक यज्ञ किए और उसके फल को यज्ञ भोक्ता भगवान को समर्पित कर दिया। इस प्रकार भक्ति योग का आचरण करते हुए इन्होंने हजारों वर्ष व्यतीत किए। इसके बाद अपने पुत्रों को राज्य भार देकर इन्होंने भगवान की एकांतिक भक्ति के लिए पुलह ऋषि के आश्रम हरिक्षेत्र के लिए प्रस्थान किया। हरिक्षेत्र के विद्याधर कुंड में आज भी भगवान अपनी आराधना करने वाले भक्तों को अपने स्वरूप सान्निध्य का सुख प्रदान करते हैं।

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पुलह आश्रम के चारों ओर बहने वाली गंडकी नदी शालग्राम शिला के चक्रों से आश्रम को पवित्र करती है। उस आश्रम की सात्विक पुष्प वाटिका में रह कर राजर्षि भरत पत्र पुष्प, तुलसी दल एवं फल आदि सामग्री से भगवान की आराधना करने लगे।
एक दिन राजर्षि भरत गंडकी नदी में स्नान करके उसके तट पर मंत्रों का जप कर रहे थे। उसी समय वहां जल पीने की इच्छा से एक हिरणी आ गई।

उसने ज्यों ही जल पीना आरंभ किया, तभी एक शेर के दहाड़ने की आवाज सुनाई पड़ी। उसने भय से व्याकुल होकर नदी के उस पार छलांग लगा दी।  तभी उसका बच्चा उसके गर्भाशय से निकल कर नदी में गिर पड़ा। इसके बाद हिरणी ने भी एक गुफा में जाकर प्राण त्याग दिए।

दयालु ऋषि ने उस मातृहीन बच्चे को बाहर निकाल लिया और अनाथ समझ कर उसे अपने आश्रम में ले आए। धीरे-धीरे उस बच्चे में उनकी आसक्ति और ममता हो गई। फलस्वरूप उसके पीछे उनका सारा धर्म-कर्म छूट गया। वह रात-दिन उसी के लालन-पालन में लगे रहते थे। वह सोचते कि कालचक्र ने ही इस बच्चे को माता-पिता से छुड़ा कर मेरी शरण में पहुंचाया है। अत: इस शरणागत की सब प्रकार से रक्षा करना ही मेरा धर्म है।

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एक दिन वह मृग शावक खेलता-खेलता आश्रम से बहुत दूर निकल गया और फिर लौट कर नहीं आया। राजर्षि भरत उसके वियोग में व्याकुल हो गए और उसे याद करके रोने लगे। इस प्रकार उनके प्रारब्ध ने ही हिरण का रूप धारण करके उन्हें योग मार्ग और भगवान की भक्ति से विरत कर दिया।

अन्यथा सर्वस्व त्यागी राजर्षि भरत की हिरण में आसक्ति कैसे होती। एक दिन उस हिरण की चिंता में ही उनका अंतकाल उपस्थित हो गया। मृग शावक का ध्यान करते हुए प्राण त्याग करने के कारण उन्हें अगले जन्म में हिरण का शरीर प्राप्त हुआ, परन्तु भगवान की आराधना के फल से उन्हें अपने पूर्व जन्म की स्मृति बनी रही।

अब वह पूर्ण रूप से सावधान थे। उन्होंने अपने हिरण परिवार को छोड़ दिया और पुलह आश्रम में मुनि की भांति विचरने लगे। मृत्यु काल आने पर उन्होंने हिरण का शरीर त्याग दिया और तीसरे जन्म में ब्राह्मण के यहां जन्म लिया। वहां उनका नाम जड़भरत हुआ तथा उसी शरीर से उन्हें मुक्ति प्राप्त हुई।

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